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________________ संगीतशास्त्र] (६०९) [संगीतशास्त्र इनका ग्रन्थ भारतीय संगीतशास्त्र का महाकोश है जिसमें पूर्ववर्ती संगीतशास्त्रकारों के प्रामाणिक ग्रन्थों को उपजीव्य बनाकर इस विषय का प्रौढ़ विवेचन प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने ग्रंथ के प्रारम्भ में ऐसे अनेक लेखकों की सूची दी है । इस ग्रन्थ में विभिन्न रसों की विशद व्याख्या प्रस्तुत करते हुये बताया गया है कि किस रस में किस राग का प्रयोग करना चाहिए। इन्होंने 'संगीतसमयसार' नामक एक अन्य ग्रंथ का भी प्रणयन किया था। बड़ोदा के प्राच्यविद्यामन्दिर में 'वीणाप्रपाठक' नामक ग्रन्थ का हस्तलेख मिलता है जिस पर 'संगीतरत्नाकर' का अधिक प्रभाव है। दक्षिण के रामामात्य ने १६१० ई० में 'स्वरसुधानिधि' नामक एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की थी जो श्रीरङ्ग के राजा रामराज के आदेश से लिखा गया था। 'रामामात्य' ने अपने पूर्व कालीन शास्त्रकारों के सिद्धान्तों का संशोधन इस रूप में किया कि वे तत्कालीन संगीतकला के व्यावहारिक रूप के अनुकूल बन जायें।' स्वतन्त्रकलाशास्त्र (प्रथम संस्करण) पृ० ५६४ इन्होंने स्वरों की संख्या सात ही सिद्ध की है। राजा मानसिंह वर्तमान ध्रुपद रीति के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। तदनन्तर भवदत्त (१८०० ई.) ने 'अनूपसंगीतरत्नाकर' नामक ग्रन्य की रचना कर ध्रुपद की नवीन परिभाषा प्रस्तुत की। अकवर के काल में संगीतकला की पर्याप्त उन्नति हुई। उस युग के प्रसिद्ध संगीतकारों में स्वामी हरिदास एवं तानसेन के नाम आते हैं। अकबर के ही समसामयिक पुण्डरीक विट्ठल ने संगीतविषयक चार ग्रन्थों की रचना की-षडागचन्द्रोदय, रागमाला, रागमंजरी एवं नत्तननिर्णय । ये सभी ग्रन्थ हस्तलिखित रूप में बीकानेर पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। जहांगीर के समय में संगीतशास्त्र पर दो प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना हुई'संगीतदर्पण' एवं 'संगीतपारिजात'। इनके लेखक क्रमशः पण्डित दामोदर एवं अहोबल हैं । दोनों ग्रन्थों में उत्तर एवं दक्षिण की सांगीतिक पद्धतियों का सुन्दर समन्वय किया गया है। पं० हृदयदेव नारायण ने 'हृदयकौतुक' एवं 'राजतरंगिणी' नामक दो ग्रन्थों की रचना की जिनके हस्तलेख बीकानेर राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं । पं. भावभट्ट ने ( १६७४-१७०९ ई.) संगीत-सम्बन्धी तीन ग्रंथों का निर्माण किया'अनूपविलास', 'अनूपांकुश' तथा 'अनपसंगीतरत्नाकर'। तीनों ही अपने विषय के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं । इसी समय के वेंकटमुखी नामक भाट-रचित 'चतुर्दण्डप्रकाशिका' ग्रन्थ में ७१ थाट एवं ४५ रागों का विवेचन प्रस्तुत किया गया। तदनन्तर मेवाड़ के राणा कुम्भनदेव ने 'बाथरत्नकोश' नामक ग्रंथ का प्रणयन किया जिसमें वाद्यों का सुन्दर विवेचन है ( १७४८ ई.)। श्रीकण्ठ नामक विद्वान् की 'रसकौमुदी' नामक रचनां संगीतशास्त्र की सुन्दर कृति है जो १८ वीं शताब्दी की रचना है । दक्षिण की संगीतज्ञा मधुरवाणी द्वारा रचित एक ग्रन्थ बंगलोर में प्राप्त हुआ है जिसमें १४ सगं एवं १५०० श्लोक हैं। इसमें रामायणी कथा के आधार पर संगीत का वर्णन है। यह ग्रंथ तैलंग लिपि में है । पं. कृष्णानन्द व्यास ने १८४३ ई० में 'रागकल्पद्रुम' नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की, जिसका प्रकाशन कलकत्ता से हो चुका है। दक्षिण के संगीतज्ञों में तंजौर के राजा तुलब, त्यागराज, मुत्तूस्वामी दीक्षित श्यामशास्त्री अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। राजा तुलज ने (१७३५ ई.) 'संगीतसारामृत' नामक ग्रन्थ का प्रणयन किया था। ३६ सं० सा०
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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