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व्याकरण-शास्त्र का इतिहास]
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. [व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
धर्मशास्त्र तथा वाल्मीकि रामायण में षडङ्ग के रूप में निद्दिष्ट किया गया है षडङ्ग विदस्तत् तथाधीमहे । गो० ब्रा० पू० ११२७ । नाषडङ्गविदत्रास्ति नावतो ना बहुश्रुतः ॥ बालकाण्ड ६१५ । ब्राह्मणों में कृत, कुवंत और करिष्यत् शब्दों का प्रयोग लिंग, वचन तथा भूत, वर्तमान एवं भविष्यत् के अर्थ में हुआ है तथा बारण्यकों एवं उपनिषदों में भी वाणी के प्रसङ्गों के अन्तर्गत स्वर, ऊष्मन्, स्पर्श, धातु, प्रातिपदिक, नाम, मास्यात, प्रत्यय, विभक्ति आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । गोपथ ब्राह्मण में व्याकरणशास्त्र के अनेक पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख है ( ॥१२४)ओङ्कारं पृच्छामः-को धातुः, किं प्रातिपदिकम्, किं नामाख्यातं, किं लिङ्ग, किं वचनं, का विभक्तिः, कः प्रत्ययः, कः स्वर उपसर्गो निपात; किं वे व्याकरणं, को विकारः, को धिकारी, कतिभागः, कतिवर्णः, कत्यक्षरः, कतिपदः, कः संयोगः । उपयुक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मण काल तक व्याकरण की रूपरेखा तैयार हो चुकी थी। आगे चल कर वैदिक शब्दों के निर्वचन एवं विवेचन के लिए अनेक शिक्षा ग्रन्य, प्रातिशाख्य, तन्त्र, निरुक्त एवं व्याकरण लिखे गए जिनमें वैदिक पदों के स्वर, उच्चारण, समास, सन्धि, वृत्त एवं व्युत्पत्ति पर विचार किया गया।
भारतीय मनीषा के अनुसार समस्त विद्याओं का प्रवचन ब्रह्मा जी द्वारा हुआ है तथा वे ही प्रथम वैयाकरण हैं । ब्रह्मा के बाद बृहस्पति ने व्याकरण का प्रवचन किया और उनके बाद इन्द्र ने । महाभाष्य में भी इस बात का उल्लेख है कि बृहस्पति ने इन्द्र के लिए प्रतिपद पाठ का शब्दोपदेश किया था-बृहस्पतिरिन्द्राय दिव्यं सहस्रवर्ष प्रतिपदोक्तानां शब्दानां पारायणं प्रोवाच । १११११ । पाणिनि से पूर्व अनेक वैयाकरणों का उल्लेख मिलता है जिससे विदित होता है कि संस्कृत में उनसे पूर्व व्याकरण की स्वस्थ परम्परा बन चुकी थी और अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण हो चुका था, किन्तु पाणिनि व्याकरण की भास्वरता में वे सभी निस्तेज एवं नष्ट हो गये पर उनकी छाप अष्टाध्यायी पर पड़ी रही। प्राक्पाणिनि वैयाकरणों में इन्द्र, वायु, भारद्वाज, भागुरि, पौष्करसादि, चारायण, काशकृत्स्न, वैयाघ्रपद, माध्यन्दिनी, रौढ़ि, शौनक, गौतम, व्याडि आदि तेरह प्राचीनतम आचार्य आते हैं। इनके अतिरिक्त दस ऐसे वैयाकरण हैं जिनका उल्लेख अष्टाध्यायी में किया गया है, वे हैं-आपिशलि, ( ६।१।९२ )। काश्यप (१।२।२५ तथा ८४६७.), गाग्यं ( ७३९९, ८३२०, ८।४।६७), गालव (६।३।६१,७४३३९९, ८।४।६७), चाक्रवर्मण, (६३१.१३०), शाकल्य (१३१३१६, ६।१।१२७, ८३।१९), शाकटायन ( ८।३।१२, ८।४।५०), सेनक (२४११२), स्फोटायन ( ६।१।१२३ ), भारद्वाज ( ७२।६३)। इस प्रकार प्राक्पाणिनीय परम्परा के प्रवर्तक तेईस आचार्य आते हैं, जिन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों की स्थापना कर संस्कृत व्याकरण को प्रौढ़ बनाया था। प्रसिद्ध वैयाकरणिक सम्प्रदायों में ऐन्द्र सम्प्रदाय, भागुरीय सम्प्रदाय, कामन्द विवरण, काशकृत्स्न सम्प्रदाय, सेनकीय सम्प्रदाय, काश्यपीय व्याकरण, स्फोटायन, चाक्रवमणीय व्याकरण, आपिशलि, व्याकरण तथा व्याडीय व्याकरण-सम्प्रदाय हैं। डॉ० वर्नेल के अनुसार इनमें ऐन्द्र व्याकरण-शाखा प्राचीनतम शाखा थी और पाणिनि ने बहुत कुछ उनके मन्त्रों को लिया भी था। आज प्राकपाणि