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________________ वैशेषिक दर्शन] [वैशेषिक दर्शन लोलाक्षिभास्कर की 'तककौमुदी', वलभाचार्य की 'न्यायलीलावती' एवं विश्वनाथ पंचानन का 'भाषा-परिच्छेद' नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। तस्वमीमांसा-वैशेषिक दर्शन में संसार की वस्तुओं को 'पदार्थ' कहा जाता है । पदार्थ का अर्थ 'नामधारण करनेवाली वस्तु' है। इसे ( पदार्थ को ) प्रमिति (ज्ञान) का विषय होना भी कहा गया है । अतः पदार्थ के दो लक्षण हुए ज्ञेयत्व एवं अभिधेयत्व । द्रव्य-'जिसमें क्रिया और गुण हो और जो समवायी कारण हो, उसे द्रव्य कहते हैं । वैशेषिक सूत्र १।१।१५। द्रव्य से ही नयी वस्तुएं बनायी या गढ़ी जाती हैं, अतः यह किसी भी कार्य का उपादान कारण होता है। इसमें गुण और क्रिया का भी साधार रहता है। द्रव्य के बिना कोई भी कर्म और गुण नहीं रह सकते। इनके अनुसार द्रव्य नौ हैं-पृथ्वी, तेज, जल, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मन । इनमें प्रथम पांच को 'पंचभूत' कहा जाता है । पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु के परमाणु नित्य होते हैं और इनसे निर्मित पदार्थ अनित्य । पृथ्वी-इसका गुण गन्ध है। अन्य वस्तुओं, जैसे जल और वायु में भी जो गन्ध का अनुभव होता है वह पृथ्वी का ही तत्व या अंश है, जो उनमें मिल गया है । जल का गुण रस है, तेज का रूप, वायु का स्पर्श तथा आकाश का शब्द । इन पांच गुणों का प्रत्यक्षीकरण पांच बाह्येन्द्रियों के द्वारा होता है। पृथ्वी दो प्रकार की हैनित्य तथा बनित्य । इसमें ( पृथ्वी में ) गन्ध के अतिरिक्त रूप, रस तथा स्पर्श भी हैं जो अग्नि, जल और वायु के तत्व हैं। वायु में अपने गुण, स्पर्श के अतिरिक्त तेज और जल के कारण उष्णता तथा शीतलता भी पायी जाती है। आकाश में किसी अन्य द्रव्य का गुण नहीं पाया जाता। तेज में अपने स्वाभाविक गुण के अतिरिक्त वायु का गुण स्पर्श भी वर्तमान रहता है तथा जल में भी अन्य द्रव्य के संयोग से रूप एवं स्पर्श भी प्रकट होते हैं। इनमें आकाश न तो किसी का गुण ग्रहण करता है और न अपना गुण किसी को देता है । आकाश सर्वव्यायी तथा अपरिमित है। वह शब्द का सर्व व्यापी आधार है और शब्द से ही उसका ज्ञान होता है। आकाश की तरह दिक् और काल भी अप्रत्यक्ष तथा अगोचर तत्व हैं। आकाश तो शब्द से जाना भी जाता है पर दिक् का ज्ञान नहीं होता। यहां, वहां निकट तथा दूर इन प्रत्ययों का कारण दिक् होता है । आकाश, काल और दिक् सभी निरवयव, सर्वव्यापी एवं उपाधि-भेद से अनेक ज्ञात होते हैं तथा इनके अंश भी परस्पर भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिए घट का आकाश वास्तविक आकाश से भिन्न है तथा पूर्व-पश्चिम एवं 'दिनघंटा' आदि भी दिक् और काल के औपाधिक भेद हैं [ दे० भारतीय दर्शनचटर्जी-दत्त पृ० १५३]। आत्मा की सिद्धि-शरीर के कार्य या व्यापार के द्वारा जिस चेतनता का अनुमान या ज्ञान हो उसे आत्मा कहते हैं। यह चैतन्य का आधार तथा नित्य और सर्वव्यापी तस्व होता है । इसके दो प्रकार हैं-जीवात्मा तथा परमात्मा । जीमात्मा का ज्ञान सुखदुःख के विशेष अनुभवों से ही होता है। भिन्न-भिन्न शरीर में भिन्न-भिन्न जीवात्माओं
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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