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वैदिक देवता]
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[वैदिक देवता
विश्ववारा (समस्त प्राणियों के द्वारा वरने योग्य ), सुभगा तथा रेवती (धन से युक्त) बादि विशेषणों से विभूषित किया गया है। नित्य प्रति नियमित रूप से उदित होकर यह प्रकृति के नियम का पालन करती है।
इन्द्र-इन्द्र अन्तरिक्षस्थान के प्रधान देवता हैं। ऋग्वेद में उनकी स्तुति चतुर्षात सूक्तों में की गयी है। वे वैदिक आर्यों के लोकप्रिय एवं राष्ट्रीय देवता हैं। इनके स्वरूप का वर्णन मालंकारिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। उनका रंग भूरा है और केश तथा दाढ़ी का भी रंग भूरा है। वे अत्यन्त शक्तिमान होने के कारण सभी देवताओं को अभिभूत करते हैं। वे चंचल पृथ्वी एवं हिलनेवाले पर्वतों को स्थिर कर देते हैं। इन्द्र अत्यन्त बलशाली एवं गठीले शरीर के हैं। वे हाथ में वष धारण करते हैं। उनकी हनु अत्यन्त सुन्दर एवं बाहु बलवान हैं। उनका वजू त्वष्टा द्वारा लोहे से निर्मित है जिसका रंग सुनहला भूरा, तेज तथा अनेक सिरों से युक्त है। वजू धारण करने से 'बजूबाहु' या 'बजी' कहे गये हैं। वे भूरे रंग के दो घोड़ों से युक्त रप पर चढ़ कर शत्रुषों के साथ युद्ध करते हैं। इन्द्र सोमपान के अधिक अभ्यासी हैं, अतः उन्हें 'सोमपा' कहते हैं। सोम-पान से उनमें उत्साह एवं वीरता का भाव आता है । वृत्र के युद्ध में उन्होंने सोमरस से भरे तीन तालाबों का पान कर लिया था। उनकी पत्नी इन्द्राणी का भी उल्लेख प्राप्त होता है। वे शचीपति के रूप में वर्णित हैं। उन्होंने वृत्र का नाश किया है जो अकाल का असुर है। उन्होंने वृत्रासुर का वध कर अवरुद्ध जल को मुक्त किया तथा पर्वतों की उन्नति रोकी। वे पर्वतों को चूर-चूर कर जल को निकाल देते हैं। वृत्रकथा के कारण उनका नाम वृत्रहत् पड़ा है। ऋग्वेद के प्रारम्भिक युग में इन्द्र और वरुण का महत्व समान था किन्तु उत्तर वैदिक युग में इन्द्र की महत्ता अधिक हो गयी। ब्राह्मण एवं पौराणिक युग में इन्द्र की संज्ञा प्रदान की गयी। आर्यों को विजय प्रदान करनेवाले देवता के रूप में इन्द्र की भूरिशः प्रशंसा की गयी है तथा उनकी वीरता के भी गीत गाये गए हैं। 'इन्द्रदेव के सामने न बिजली टिक सकी, न मेघों की गर्जना। उसके सामने फैला हुआ हिम लुप्त हो गया तथा ओलों की वर्षा भी लुप्त से गयी। इनका वृत्रासुर के साथ भीषण संग्राम हवा और अन्त में शक्तिशाली इन्द्र की विजय हुई।' ऋग्वेद १।३२।१३ । 'अनवरत जल की धारा में वृत्रासुर जा गिरा और उसके शव को जलधारा प्रवाहित करके गयी। वह असुर सदा के लिए अन्धतमिस्र में अन्तहित हो गया ।' ऋग्वेद १।३२।१४ 'जिसने इस विशाल पृथ्वी को कांपती हुई अवस्था में सुस्थिर किया, जिसने उपद्रव मचाने वाले पर्वतों का शमन किया, जिसने अन्तरिक्ष को माप डाला और बाकाश का स्तम्भन किया, वही, हे मानवो! यह इन्द्र है। ऋग्वेद २।१२।२।
रुद्र-ऋग्वेद के केवल तीन सूक्तों (प्रथम मण्डल का ११४ वा, द्वितीय मण्डल का ३३ वां तथा ७ मण्डल का ४६ वां सूक्त) में रुद्र की स्तुति की गयी है। इनका महत्त्व, अग्नि, बरुण तथा इन्द्र आदि देवताओं की भांति नहीं है। पर यह स्थिति केवल ऋग्वेद में ही है, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद में उन्हें कुछ अवश्य ही अधिक महत्व प्राप्त हुआ है। यजुर्वेद का एक पूरा अध्याय 'पाध्याय' कहा जाता है। ऋग्वेद में
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