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________________ वैदिक देवता] ( ५४२ ) [वैदिक देवता कि एक ही मूल सत्ता की ऋग्वेद में 'उक्थ' के रूप में, यजुर्धेद में याज्ञिक अग्नि के रूप में तथा सामवेद में 'महावत' के नाम से उपासना की जाती है। ऋग्वेद में देवताओं के लिए 'असुर' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है 'असुविशिष्ट या प्राणशक्तिसम्पन्न ।'-तदेवस्य सवितुः असुरस्य प्रचेतसः ( ४।५।३।१) (पर्यन्यः ) असुरः पिता नः । (५।१३।६ )। इन्द्र, सविता, वरुण, उषा आदि देवताओं की विशेषताएं हैं उनकी स्थिरता ( आतस्थिवांसः ), अनन्तता ( अनन्तासः ) आदि। ये देव विश्व के समग्र प्राणियों में स्थित रहते हैं। इनमें विद्यमान शक्ति एक ही मानी गयी है। ऋग्वेद में कहा गया है कि 'जीर्ण ओषधियों में, नवीन उत्पन्न होने वाली ओषधियों में पल्लव तथा पुष्प में सुशोभित ओषधियों में तथा गर्भ धारण करने वाली ओषधियों में एक ही शक्ति विद्यमान रहती है। देवों का महत् सामर्थ्य वस्तुतः एक ही है । 'ऋग्वेद ३०५४।४ । ऋग्वेद में ऋत या सत्य या अविनाशी सत्ता की महिमा गायी गयी है तथा ऋत् के कारण ही जगत् की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है। इसके कारण संसार में सुव्यवस्था, प्रतिष्ठा एवं नियमन होता है। यह ऋत् सत्यभूत ब्रह्म ही है तथा देवगण इसी के रूप माने गए हैं। सभी देवों एवं सभी कार्यों के भीतर इसी सार्वभौम सत्ता का निवास है जिससे जगत् के सारे क्रिया-कलाप होते रहते हैं। ऋग्वेद में देवताओं के तीन रूपों का उल्लेख है-स्थूल ( आधिभौतिक) सूक्ष्म या गूढ़ (आधिदैविक) एवं आध्यात्मिक । इन सारे तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि वेदों में एक परम सत्य को सता या ब्रह्मतत्व की मान्यता स्वीकार की गयी है तथा इसका आधार अद्वैतवाद है। प्रमुख देवताओं का परिचय-वरुण-वरुण आर्यों के महत्त्वपूर्ण देवता हैं । वे जल के अधिपति या देवता हैं। ऋग्वेद में उनकी स्तुति करते हुए कहा गया है, 'हे वरुण ! जल के मध्य में स्थित होते हुए भी तुम्हारे भक्त को तृषा सता रही है । हे ईश्वर ! तू मुझे सुखी बना, मुझ पर दया कर ।' ७।८९।४ । अपां मध्ये तस्थिवांसं तृष्णोविदजरितारम् । मृका सुक्षत्र मृकये ॥ ऋग्वेद में वरुण का स्वरूप अत्यन्त सुन्दर चित्रित किया गया है। उनका घरीर मांसल एवं पुष्ट है वे रथ हाँकते हैं; बैठते एवं खाते-पीते हैं, उनका कवच सोने के रंग का एवं दर्शकों को चकाचौंध करनेवाला है। उनके सहस्र नेत्र हैं जिनसे वे दूरस्थित पदार्थों को भी देखते हैं। सूर्य उनका नेत्र के रूप में चित्रित है वे सभी भुवन के पदार्थों को देखते हैं तथा मानव के हृदय में उद्बुद्ध होनेवाले सभी भावों का ज्ञान उन्हें रहता है। उनका रथ अत्यन्त चमकीला हैं जिसमें घोड़े जुते हुए हैं। वे ऊर्ध्वतमलोक में स्थित अपने सुवर्ण प्रासाद में जिसमें पहस्रों खंभे एवं द्वार हैं, बैठ कर अतीत एवं भविष्य की घटनाओं का पर्यवेक्षण करते रहते हैं । वे सम्राट एवं स्वराट् की उपाधि से विभूषित हैं। क्षत्र या प्रभुत्व के अधिपति होने से उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है। वे अपनी अनिर्वचनीय शक्ति माया के द्वारा संसार का परिचालन किया करते हैं। माया वां मित्रावरुणा दिविश्रिता सूर्यो ज्योतिश्चरति चित्रमायुधम् । तमभ्रेण दृष्ट्या गृहथो दिवि पजन्य द्रप्सा मधुमन्त ईरते ॥ ऋग्वेद ५।६।४। 'हे मित्रावरुण ! आपकी मायाशक्ति आकाश का आश्रय लेकर निवास
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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