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________________ वेद का समय-निरूपण] ( ५२६ ) या २००० वर्ष पूर्व वैदिक वाङ्मय को पहुंचाने का प्रयास किया। उसी समय याकोबी ने ज्योतिषविज्ञान की गणना के आधार पर वेदों का समय चार सहस्र वर्ष पूर्व निश्चित किया। भारतीय विद्वान् लोकमान्य तिलक ने भी ज्योतिषविज्ञान का आधार ग्रहण करते हुए वेद का रचना काल ६००० वि० पू० से २५०० वि० पू० तक निश्चित किया। तिलक के पूर्व प्रसिद्ध महाराष्ट्री विद्वान् शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय ज्योतिः शास्त्र' (पूना १८९६ ई० ) में ज्योतिष-गणना के आधार पर ऋग्वेद का काल ३५०० वर्ष.वि० पू० निर्धारित किया है । उन्होंने 'शतपथब्राह्मश' में नक्षत्र-निर्देशक वर्णन प्राप्त कर उसके रचना-काल पर विचार किया है। जर्मन विद्वान याकोबी ने कल्पसूत्र के विवाह-प्रकरण में वर. वधू को ध्रुव दिखाने के वर्णन 'ध्रुवइव स्थिराभव' का काल २७०० ई० पू० का माना है। ऋग्वेद के विवाहमन्त्रों में ध्रुव दिखाने की प्रथा का उल्लेख नहीं है। इसके आधार पर याकोबी ने ऋग्वेद का काल ४००० ई० पू० निश्चित किया। याकोबी के इस मत का पाश्चात्य विद्वानों द्वारा पूर्ण विरोध हुआ । लोकमान्यतिलक ने 'ओरायन' नामक ग्रन्थ में वेदों के कालनिर्णय पर विचार करते हुए ज्योतिर्विज्ञान का ही सहारा लिया है। उन्होंने नक्षत्र-गति के आधार पर ब्राह्मणों का रचना-काल २५०० वि० पू० निर्धारित किया। तिलक जी ने बताया कि जिस समय कृत्तिका नक्षत्र की सभी नक्षत्रों में प्रमुखता थी तथा उसके आधार पर अन्य नक्षत्रों की स्थिति का पता चलता था, वह समय आज से ४५०० वर्ष पूर्व था। उन्होंने मन्त्र संहिताओं का निर्माण-काल मृगशिरा नक्षत्र के आधार पर निश्चित किया। उनके अनुसार मृगशिरा नक्षत्र के द्वारा ही ऋग्वेद में मन्त्र संहिताओं के युग में बसन्त-सम्पात् के होने का निर्देश प्राप्त होता है। खगोलविद्या के अनुसार मृगशिरा की यह स्थिति आज से ६५०० वर्ष पूर्व निश्चित होती है। यदि मन्त्र-संहिता के निर्माण से २००० वर्ष पूर्व वेदमन्त्रों की रचना की अवधि स्वीकार कर ली जाय तो वेद का समय वि० पू० ६५०० वर्ष होगा। उन्होंने वैदिक काल को चार युगों में विभाजित किया है। १अदितिकाल (६०००-४००० वि० पू०), २-मृगशिराकाल ( ४०००-२५०० वि० पू०), ३-कृत्तिकाकाल ( २५००-१४०० वि० पू०) ४–अन्तिमकाल (१४००५०० वि० पू०)। शिलालेख का विवरण-१९०७ ई. में डाक्टर हगो विम्कलर को एशियामाइनर (टर्की) के 'बोषाज-कोइ' नामक स्थान में 'हित्तित्ति' एवं 'मितानि' जाति के दो राजाओं के बीच कभी हुए युद्ध के निवारणार्थ सन्धि का उल्लेख था। इस सन्धि की साक्षी के रूप में दोनों जातियों के देवताओं की प्रार्थना की गयी है। देवों की सूची में हित्तित्ति जाति के देवों के अतिरिक्त मितानि जाति के देवताओं में वरुण, इन्द्र नासत्यो ( अश्विन ) के नाम दिये गए हैं। ये लेख १४०० ई० पू० के हैं। इसके द्वारा यूरोपीय विद्वानों ने मितानि जाति को भारतीय आर्यों की एक शाखा मान कर दोनों का सम्बन्ध स्थापित किया। इससे यह सिख हुमा कि १४००६० पू० भारतवर्ष में
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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