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व्यक्तिविक]
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[व्यक्तिविवेक
६ आयं पुद्गलनिर्देश, ७ ज्ञाननिर्देश एवं ८ ध्याननिर्देश । यह विभाजन अध्यायानुसार है। जीवन के अन्तिम समय में इन्होंने अपने भ्राता असंग के विचारों से प्रभावित होकर भाषिक मत का परित्याग कर योगाचार मत को ग्रहण कर लिया था। इनके अन्य ग्रन्थ हैं
१. परमार्थ सप्तति-इसमें विन्ध्यवासी प्रणीत 'सांख्यसप्तति' नामक ग्रन्थ का खण्डन है। २. तर्कशास्त्र-यह बौदन्याय का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें पन्चावयव, जाति और निग्रह-स्थान का विवेचन है। ३. वादविधि-यह भी न्यायशास्त्र का ग्रन्थ है। ४. अभिधर्मकोश को टीका, ५. सद्धर्मपुण्डरीक की टीका, ६. महापरिनिर्वाणसूत्र-टीका, ७. वजन्छेदिका प्रज्ञापारमिताटीका, ८. विज्ञप्तिमात्रासिद्धि।
तिब्बती विद्वान् वुस्तोन के अनुसार वसुबन्धु-रचित अन्य ग्रन्थ हैं-पंचस्कन्धप्रकरण, व्याख्यायुक्ति, कर्मसिदिप्रकरण, महायानसूत्रालंकार-टीका प्रतीत्यसमुत्पादसूत्र. टीका तथा मध्यान्तविभागभाष्य । 'अभिधर्मकोश' का उद्धार करने का श्रेय डाक्टर पुर्से को है। इन्होने मूल ग्रन्थ तथा चीनी अनुवाद के साथ इसका प्रकाशन कच भाषा की टिप्पणियों के साथ किया है । इसका हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन हिन्दुस्तानी अकादमी से हो चुका है जिसका अनुवाद एवं सम्पादन आ० नरेन्द्रदेव ने किया है। बौद्धधर्म के आकर ग्रन्थों में 'अभिधर्मकोश' का नाम विस्यात है। इस पर यशोमित्र ने 'स्फुरार्था' नामक संस्कृत-टीका लिखी है [ "विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखम्बा संस्कृत सीरीज से हो चुका है । अनुवादक डॉ. महेश तिवारी]
बाधारग्रन्थ-१. बौद्ध-दर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय। २. भारतीय-दर्शनआ० बलदेव उपाध्याय । ३. बौदधर्म के विकास का इतिहास-डॉ. गोविन्दचन पाण्डेय । ४ बौद्धदर्शन एवं अन्य भारतीय दर्शन-डॉ. भरतसिंह उपाध्याय । ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास-श्री वाचस्पति गैरोला ।
व्यक्तिविवेक-इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य महिमभट्ट हैं । दे० महिमभट्ट ] । इसकी रचना आनन्दवन कृत 'ध्वन्यालोक' में प्रतिपादित ध्वनिसिद्धान्त के खण्डन के लिए हुई थी। इसके मंगलाचरण में ही लेखक ने अपने उद्देश्य का संकेत किया है'अनुमानेऽन्तर्भावं सर्वस्यैव ध्वनेः प्रकाशयितुम् । व्यक्तिविवेक कुरुते प्रणम्य महिमा परां. वाचम् ॥ 'व्यक्तिविवेक' में तीन विमर्श हैं। प्रथम विमर्श में ध्वनि की परीक्षा करते हुए उसके लक्षण में (आनन्दवर्धन द्वारा प्रतिपादित लक्षण में ) दस दोष प्रदर्शित किये गए हैं। लेखक ने वाच्य तथा प्रतीयमान अर्थ का उल्लेख कर प्रतीयमान अर्थ को अनुमिति ग्राह्य सिद्ध किया है। महिमभट्ट ने ध्वनि की तरह अनुमिति के भी तीन भेद किये हैं-वस्तु, अलंकार एवं रस। द्वितीय विमर्श में शब्ददोषों पर विचार कर ध्वनि के लक्षण में प्रक्रमभेद तथा पोनरुक्ति आदि दोष दिखलाये गए हैं। तृतीय विमर्श में ध्वन्यालोक के उन उदाहरणों को अनुमान में गतार्थ किया गया है जिन्हें कि ध्वन्यालोककार ने ध्वनि का उदाहरण माना है। 'व्यक्तिविवेक' का मुख्य प्रतिपाव है