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________________ रामानुजाचार्य ] ( ४६९ ) [ रामानुजाचार्य किन्तु इनकी सत्ता स्वतन्त्र पदार्थ के सविशेष होता है, किन्तु संसार के अनुसार ईश्वर जगत् का निमित्त एवं का नियमन करते हुए उन्हें कार्य में पर आश्रित होते हैं । ईश्वर विशेष्य विशेष्य या ब्रह्म की सत्ता पृथक् रूप से होने के कारण ईश्वर से सम्बद्ध होते हैं के कारण इनका सिद्धान्त विशिष्टाद्वैतवाद के नाम से प्रख्यात है । रूप में है । उनके अनुसार ईश्वर सदा सगुण सभी पदार्थं गुण विशिष्ट होते हैं । रामानुज के उपादान कारण दोनों ही है । वह चित् अचित् प्रवृत्त करता है । चिदचित् दोनों ही ईश्वर होता है और जीव जगत् विशेषण होते हैं । सिद्ध है किन्तु जीव और जगत् विशेषण रूप अद्वैत ब्रह्म को सगुण और सविशेष मानने । सूक्ष्म रूपापन्न ईश्वर - ईश्वर जगत् की उत्पत्ति लीला करने के लिए करता है और उसे इस कार्य से आनन्दानुभव होता है । ब्रह्म की सृष्टि होने के कारण जगत् उतना ही वास्तविक एवं सत्य है जितना कि ब्रह्म । वे सृष्टि और जगत् को भ्रम नहीं मानते । विशिष्टाद्वैतवाद में ईश्वर दो प्रकार का माना गया है— कारणवस्थ ब्रह्म एवं कार्यावस्थ ब्रह्म । सृष्टिकाल में जगत् स्थूल रूप में प्रतीत होता है, किन्तु प्रलयकाल में उसकी प्रतीति सूक्ष्मरूप में होती है । अत: प्रलयकाल में जीव और जगत् का होने से उनसे सम्बद्ध ईश्वर कारणब्रह्म कहा जाता है, किन्तु सृष्टि के के स्थूल होने के कारण उसी चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर को 'कायं ब्रह्म' किसी भी स्थिति में विशिष्टता से हीन नहीं होता । प्रलयकाल में भी जब कि चित् और अचित् सूक्ष्म रूप धारण कर लेते हैं उस समय भी ईश्वर चित् और अचित् से विशिष्ट होने के कारण सगुण एवं सविशेष बना रहता है । वह भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए पांच रूप धारण करता है । पर व्यूह, विभव, अन्तर्यामी और अर्चावतार | समय चिदचिद् कहते हैं । ब्रह्म चित् - चित् जीव को कहते हैं जो देह-इन्द्रिय-मन-प्राण-बुद्धि से विलक्षण, अजड़, आनन्दरूप, नित्य, अणु, अव्यक्त, अचिन्त्य, निरवयव, निर्विकार तथा ज्ञानाश्रय होता है । वह अपने सभी कार्यों के लिए ईश्वर पर आश्रित होता है । रामानुज के अनुसार जीव और ईश्वर का सम्बन्ध देह और देही की भांति या चिनगारी और अग्नि की तरह है । अचित् - अचित् जड़ और ज्ञानशून्य वस्तु को कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-शुद्धसरव, मिश्रसत्त्व एवं सत्वशून्य । सत्त्वशून्य अचित् तस्व 'काल' कहा जाता है । तम और रज से मिश्रित तत्त्व को मिश्रसत्त्व कहते हैं। इसी का नाम माया या अविद्या है । शुद्धसत्त्व में रज और तम का लेशमात्र भी नहीं रहता तथा वह शुद्ध, नित्य, ज्ञानानन्द का जनक तथा निरवधिक तेज स्वरूप द्रव्य होता है । ईश्वर भक्ति - रामानुज ने मुक्ति का साधन ईश्वर भक्ति को माना है। कोरे ज्ञान या वेदान्त के अध्ययन से मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती । कर्म और भक्ति के द्वारा उत्पन्न भक्ति ही मुक्ति का साधन है। रामानुज वेदोक्त कर्मकाण्ड या वर्णाश्रम के अनुसार नित्य नैमित्तिक कर्म पर अधिक बल देते हैं। बिना किसी कामना या स्वर्गादि की प्राप्ति की इच्छा से भगवान् की भक्ति करनी चाहिए। ईश्वर की अनन्य भक्ति के
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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