SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैक्समूलर] [ मैक्समूलर ये सात दोष हैं। काव्यालंकार २।३९, ४० । मेधावी को 'संख्यान' अलंकार की उद्भावना करने का श्रेय दण्डी ने दिया है-यथासंख्यमिति प्रोक्तं संख्यानं क्रम इत्यपि । काव्यादर्श २१२७३ । नमिसाधु ने बताया है कि मंधावी के अनुसार शब्द के पार प्रकार होते हैं-नाम, आख्यान, उपसर्ग एवं निपात । इन्होंने कर्मप्रवचनीय को बमान्य ठहरा दिया है-एत एव चत्वारः शन्दविधाः इति येषां सम्यङ्मतं तत्र तेषु मामादिषु मध्ये मेधाविरुद्रप्रभृतिभिः कर्मप्रवचनीया नोक्ता भवेयुः । काव्यालंकार( रुद्रट ) नमिसाधु कृत टीका पृ. ९ ( २१२) राजशेखर ने प्रतिभा के निरूपण में इनका उल्लेख किया है और बताया है कि वे जन्मांध थे। नमिसाधु इन्हें किसी अलंकार अन्य का प्रणेता भी मानते हैं । प्रत्यक्षप्रतिभावतः पुनरपश्यतोपि प्रत्यक्ष इव, यतो मेधाविरुद्रकुमारदासादयो जात्यन्धाः कवयः श्रूयन्ते । काव्यमीमांसा पृ० ११-१२ । ननु दण्डिमेधाविसभामहादिकृतानि सन्त्येव अलंकारशास्त्राणि । काव्यालंकार की टीका ११२। आधारग्रन्थ-१. हिन्दी काव्यप्रकाश-आ० विश्वेश्वर कृत (भूमिका) २. भारतीय साहित्यशास्त्र भाग-१ आ० बलदेव उपाध्याय । मैक्समूलर-इन्होंने अपना सारा जीवन संस्कृत-विशेषतः वैदिक वाङमय के अध्ययन एवं अनुशीलन में लगा दिया था। मैक्समूलर का जन्म जर्मन देश के देसाऊ नामक नगर में ६ दिसम्बर १८२३ ई. को हुआ था। इनके पिता प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक थे। उनका देहान्त ३३ वर्ष की अल्पायु में ही हो गया था। उस समय मैक्समूलर की अवस्था चार वर्ष की थी। ६ वर्ष की अवस्था में इन्होंने ग्रामीण पाठशाला में ही ६ वर्षों तक अध्ययन किया। इन्होंने १८३६ ई० में लैटिन भाषा के अध्ययन के लिए लिपजिग विश्वविद्यालय में प्रवेश किया और वे पांच वर्षों तक वहाँ अध्ययन करते रहे। छोटी अवस्था से ही इन्हें संस्कृत भाषा के अध्ययन की रुचि उत्पन्न हो गयी थी। विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद ही ये जर्मनी के राजा द्वारा इङ्गलैण्ड से खरीदे गए संस्कृत साहित्य के बृहद पुस्तकालय को देखने के लिए बलिन गए, वहां उन्होंने वेदान्त एवं संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया। बलिन का कार्य समाप्त होते ही वे पेरिस गए, वहां इन्होंने एक भारतीय की सहायता से बंगला भाषा का अध्ययन किया और फ्रेंच भाषा में बंगला का एक व्याकरण लिखा। यहीं रहकर इन्होंने ऋग्वेद पर रचित सायण भाष्य का अध्ययन किया। मैक्समूलर ने ५६ वर्षों तक अनवरत गति से संस्कृत साहित्य एवं ऋग्वेद का अध्ययन किया और ऋग्वेद पर प्रकाशित हुई विदेशों की सभी टीकाओं को एकत्र कर उनका अनुशीलन किया। इन्होंने सायणभाष्य के साथ ऋग्वेद का अत्यन्त प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण प्रकाशित किया, जो छह सहल पृष्ठों एवं चार खण्डों में समाप्त हुआ। इस अन्य का प्रकाशन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से १४ अप्रैल, १८४७ ६० को हुआ। मैक्समूलर के इस कार्य की तत्कालीन यूरोपीय संस्कृतनों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की जिनमें प्रो. विल्सन एवं प्रो० बनफ आदि हैं। अपने अध्ययन की सुविधा देखकर मैक्समूलर इङ्गलेण्ड चले गए और मृत्युपर्यन्त लगभग ५० वर्षों तक वहीं रहे। इन्होंने १८५९ ई. में अपना विश्वविख्यात ग्रन्य संस्कृत साहित्य
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy