SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेषदूत ] ( ४३१ ) [ मेघदूत एवं आम्रकूट पर्वत को लांघता हुआ आगे बढ़ता है। वहां उसे अल्हड़ यौवना ग्वालिने ललचाई हुई आँखों से देखती हैं। मेघ तुरत जोती हुई भूमि पर जल बरसने से निकली हुई सोंधी गन्ध का घ्राण लेकर, आगे की ओर प्रस्थान करता है और ताम्रकूट की लता-कुम्जों को पार कर विन्ध्याचल के चरणतल में प्रवाहित होनेवाली रेवा नदी को पार करता है, जो नायक चरणपतिता नायिका के सदृश प्रतीत होती है। वह रेवा के स्वच्छ जल का पान कर अपने को भारी बना लेता है और उसे हवा के उड़ाने का भय नहीं रहता। आगे चलकर उसे वेत्रवती के तीर पर स्थित 'दशाण' देश मिलता है। वह वेत्रवती के जल को पीकर 'नीच' नामक पर्वत की गुफाओं में रुकता है, जहां उद्याम यौवन का उपभोग करनेवाली वेश्याओं के शरीर के सुगन्धित पदार्थों से सारा वातावरण सुगन्धित हो रहा है। जिससे दशाण देश के नवयुवकों की प्रणयलीला प्रकट होती है। वहां वह नदीतीरवर्ती जूही की कलियों को सींचता हुआ और पुष्पलाबियों ( मालिने) के सरस गुलाबी कपोलों पर शीतल छायादान करता हुआ आगे बढ़ता है। वह निर्विघ्या नदी के पूरब स्थित अवन्ति-नरेश उदयन की महानगरी उज्जयिमी पहुंच कर शिप्रा नदी के सुरभित वायु का सेवन कर चण्डीश्वर महाकाल के पवित्र मन्दिर में पहुंचता है। वहाँ गन्धवती नदी बहती है । मेघ महाकाल के मंदिर में नृत्य करती हुई वेश्याओं के नखक्षतों पर शीतल बिन्दुपात कर उनके तीव्र कटाक्ष का आनन्द लेकर गम्भीरा नदी के पास पहुंच जाता है वहाँ से उड़कर वह देवगिरि पर पहुंचता है, जहाँ स्वामी कात्तिकेय पर उमड़-घुमड़ कर जल बरसाता हुआ उनके वाहन मयूर को नतित करा देता है। तदनन्तर गोमेध करानेवाले राजा रन्तिदेव की राजधानी दशपुर पहुँच कर ब्रह्मावत के निकट कुरुक्षेत्र में आता है, जहां सहस्र बाणवर्षी गाण्डीवधारी अर्जुन की याद आ जाती है। वह सरस्वती नदी का जलपान कर कनखल के समीप पहुंचता है और निमल स्फटिक के सदृश गंगा जल को पीकर उसमें झुकने के कारण गंगा-यमुना के संगम की अभिरामता ला देता है। वहां से हिमालय में प्रवेश कर देवदारु के वनों में बमरी गायों तथा कृष्णसारों से टकराकर पाश्व में अंकित महादेव के चरण-चिह्नों की परिक्रमा करता हुमा हिमालय के जंगलों में प्रवेश करता है। वहां से वह परशुराम के यथोमार्ग 'क्रोन्चरन्ध्र' को पार कर उत्तर की मोर उड़ता है। तदनन्तर वह देवसुन्दरियों के मुकुरभूत तथा शिव के अट्टहास का पूंजीभूत कैलास पर्वत के पास पहुंच कर उसका अतिथि बनता है, जो कुमुद-श्वेत शृङ्गों से तुङ्ग एवं नभव्यापी है। कैलास पर्वत पर सुर-रमणियां कौतूहलवश अपने कंकन के कोने से उसे रगड़कर उसका जल निकालती हैं, किन्तु कर्ण-कर्कश गर्जन से उन्हें रोक देता है। तत्पश्चात् वह कैलास पर्वत के पास पहुंच जाता है वहीं, उसकी गोद में बैठी हुई अलका गंगारूपी साड़ी के सरकने से अपने प्रेमी की गोद में नमी बैठी हुई नायिका की तरह दिखाई पड़ती है। यक्ष ने बताया कि इसी नगरी में उसकी प्रियतमा वास करती है । इस प्रकार कवि ने चित्रकूट से अलकापुरी तक मेष की भौगोलिक यात्रा का मनोरम एवं काव्यमय वर्णन कर भारतीय भूगोल का सुन्दर चित्र उपस्थित किया है।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy