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________________ मृच्छकटिक ] ( ४२४ ) [ मृच्छकटिक है । अपने ही दयादि गुणों से विनम्र, साधुओं के परिपोषक, विनीतों के आदर्श, सच्चरित्रों की कसौटी, सदाचाररूपी मर्यादा के सागर, लोकोपकारी, किसी का भी अपमान न करने वाले, मानवों के गुणों के स्थान तथा सरल एवं उदार चित्त वाले—अनेकों गुणों से युक्त अकेले चारुदत्त का हो जीवन प्रशंसनीय है । और लोगों का जीवन तो व्यर्थ ही है ।" चारुदत्त के इन्ही गुणों के कारण वसन्तसेना उसकी ओर आकृष्ट होती है । जब मैत्रेय धूता का आभूषण लेकर उसके यहां पहुंचाता है तो वह उसके गुणों की प्रशंसा करती हुई उसका समाचार पूछती है - "गुणप्रबालं विनयप्रशाखं, विस्रम्भमूलं महनीय पुष्पम् । तं सधुवृक्षं स्वगुणैः फलाढ्यं सुहृद्विहङ्गाः सुखमाश्रयन्ति ।।" "उदारता आदि गुण जिसके पलन हैं, नम्रता ही विनम्र शाखाएँ हैं, विश्वास ही जड़ है, गौरव पुष्प है, परोपकार आदि अपने गुण हो से जो फलवान हो रहा है उस चारुदत्तरूपी उत्तम वृक्ष पर मित्ररूपी पक्षी क्या अब भी सुखपूर्वक निवास करते हैं ।" संवाहक चारुदत्त की प्रशंसा करते हुए कहता है कि इस पृथ्वी पर तो केवल आयं चारुदत्त का ही जीवन है, अन्य तो व्यर्थ ही जीवित हैं । इस कष्टमय जीवन की परिजन उसे छोड़कर है । वह सत्यनिष्ठ है । समय के फेर से चारुदत्त दरिद्र हो गया है और उसे इसके लिए दुःख होता है । वह अपने घर की सफाई भी नहीं करा सकता तथा उसके द्वार पर लम्बे-लम्बे घास उग गए हैं। वह दरिद्रता के कारण न तो अतिथि सत्कार कर सकता है और न दूसरों की सेवा ही करने में समर्थ है। वह दारिद्रय से ऊब कर अपेक्षा मृत्यु का वरण श्रेयष्कर मानता है । उसके मित्र तथा पृथक् हो गए हैं । उसे अपनी कोति की चिन्ता सदा बनी रहती शर्बिलक द्वारा चुराए गए वसन्तसेना के गहनों को वह धोखा से छिपाना नहीं चाहता, बल्कि उसके बदले में अपनी स्त्री की रत्नमाला भिजवा देता है । वह मैत्रेय द्वारा उसके लिए आभूषण भेजकर झूठी बात कहला देता है कि वह उसका आभूषण जुए में हार गया है । किन्तु इससे उसकी सत्यनिष्ठता पर आंच नहीं आती; क्योंकि वह कभी-कभी असत्य भाषण करता भी है तो अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए या दूसरों के कल्याण के लिए । वह अपने घर में चोर द्वारा सेंध लगाये जाने पर प्रसन्न होता है कि चोर खाली हाथ नहीं गया, क्योंकि उसे इस बात की चिन्ता होती कि इतने बड़े सार्थवाह के पर सेंध मारने पर भी चोर को कुछ नहीं मिलता और वह सब जगह जाकर चारुदत्त की दरिद्रता की चर्चा करता। वह इसीलिए दुःखित रहता है कि दरिद्रता के कारण ही परिजन उसका साथ छोड़ चुके है और अतिथि नहीं आते । "एतत्तु मां दहति यद् गृहमस्मदीयं क्षीणार्थमित्यतिशयः परिवर्जयन्ति । संशुष्कसान्द्रमदलेखमिव भ्रमन्तः कालात्यये मधुकराः करिणः कपोलम् ॥ १।१२ दीनावस्था में भी वह अपने वंश की कीर्ति को सुरक्षित रखता है। वह मतवाले हाथी से भिक्षुक का प्राण बचाने के लिए कर्णपूरक को अपना प्राबारक पुरस्कार में देता है। जब पेट के आगमन की सूचना प्राप्त होती है तो वह उसे वस्त्र देता है दे सकने के कारण दुःखित हो जाता है । द्वारा उसे वसन्तसेना के किन्तु उसे पारितोषित न
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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