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मुद्रारामस]
( ४१४ )
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[मुद्राराक्षस
है। वह चाणक्य के समक्ष पराभूत होकर भी अपनी महानता की छाप प्रेक्षकों के ऊपर छोड़ जाता है। चाणक्य के समान वह भी महान् राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिविशारद है, तथा जो कुछ भी करता है वह व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, अपितु स्वामिभक्ति से प्रेरित होकर ही। नन्द के शासनकाल में उसकी कितनी सत्ता थो; तथा उसमें राज्य-संचालन की कितनी शक्ति रही होगी, इसका पता उसकी मुद्रा से ही चलता है। चाणक्य अपनी सारी चाल को उसकी मुद्रा पर ही केन्द्रित कर देता है। राक्षस ने चन्द्रगुप्त के संहार के लिए जो योजना बनायी थी वह अत्यन्त सुदृढ़ एवं उसके बुद्धिकौशल की परिचायक थी, पर उसकी असिद्धि में राक्षस का उतना दोष नहीं था जितना कि उसके व्यक्तियों को असावधानो एवं आतुरता का था। राक्षस की पराजय आकस्मिक एवं अप्रत्याशित थो। चाणक्य के हाथ में राक्षस की मुद्रा का पड़ जाना एक अनहोनी घटना है; इससे उसका महत्व बढ़ता ही है, घटता नहीं। ___ वस्तुतः उसकी पराजय परिस्थितिजन्य थी। परिस्थिति की विपरीतता तथा अपनी योजनाओं की व्यर्थता के कारण राक्षस भाग्यवादी बन जाता है । विराधमुप्त के मुख से अपने दो गुप्तचरों के मारे जाने का समाचार प्राप्त कर वह भाग्य को दोषी ठहराता है-'नेतावुभौ हतो, देवेन वयमेव हताः ।' नन्द वंश के विनाश में वह भाग्यचक्र का ही हाथ स्वीकार करता है:-'विधेविलसितमिदं, कुतः' ? भृत्यत्वे परिभाव. धामनि सति स्नेहात् प्रभूणां सतां पुत्रेभ्यः कृतवेदिनां कृतधियां येषामभिन्ना वयम् । ते लोकस्य परीक्षकाः क्षितिभृतः पापेन येन क्षताः तस्येदं विपुलं विधेविलसितं पुंसां प्रयत्न. च्छिदः ।। ५२० । 'यह तो उस भाग्य का फेर है जो मनुष्य के पुरुषार्थ का शत्र है ! अरे ! यदि यह न होता तो वे न्याय-परायण राजराजेश्वर क्योंकर नष्ट हो जाते जिनके लिए जिन प्रभुत्वशालियों के लिए, जिन परोपकार-परायणों के लिए और जिन सदसतिवेक-कर्ताओं के लिए, सेवक होने से अपमानास्पद हो सकने पर भी, केवल उनके स्नेहवश हम पुत्रवत् ही निरन्तर रहते आये ।' राक्षस की इस उक्ति में उसकी भाग्यवादितः के अतिरिक्त नन्दवंश के प्रति उसकी भक्ति-भावना भी आभासित होती है । राक्षस भाग्यवादी होते हुए भी अकमण्यं नहीं है, और न अपने प्रयत्नों की असफलता के कारण अपने को कोसता है। निराशा की भावना से भर जाने पर भी उसके पुरुषार्थ में शिथिलता नहीं आती, और अन्त-अन्त तक वह कर्मठ एवं क्रियाशील बना रहता है। वह राजनीति-विशारद होते हुए भी कठोर नहीं है, और सहृदयता उसके व्यक्तित्व का बहुत बड़ा गुण है। वह सहज ही अपने प्रति सहानुभूति प्रकट करने वालों को विश्वासभाजन समझ लेता है। ___ राक्षस का वास्तविक रूप उसकी मित्रता में प्रस्फुटित होता है। वह अपने मित्र चन्दनदास के प्राणों पर संकट देखकर उसकी रक्षा के लिए आत्म-समर्पण कर देता है। वह अपने मित्र के जीवन से बढ़ कर अपनी प्रतिष्ठा को नहीं समझता और चाणक्य का वशवर्ती हो जाता है। उसका आत्मसमपंण उसकी असफलता का द्योतक न होकर उसकी सच्ची मैत्री का परिचायक है । 'मुद्राराक्षस' नाटक में राक्षस असफल सिद्ध होते