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________________ मुद्राराक्षस] ( ४१० ) [मुद्राराक्षस 'पताका' है तथा चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य के पारस्परिक मिथ्या मतभेद का सन्देश राक्षस को देना 'प्रकरी' है । अन्त में राक्षस का चन्द्रगुप्त का अमात्य-पद ग्रहण करना 'कार्य' है। नाटककार ने कार्यावस्थाओं के नियोजन में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। नाटकीय कथावस्तु के विकास में कार्यावस्थाएं पांच दशाओं को द्योतित करती हैं। प्रथम अंक में चाणक्य के मन में चन्द्रगुप्त के राज्य को निर्विघ्न चलाने एवं उसमें स्थायित्व लाने का भाव ही 'प्रारम्भ' है। चाणक्य का अपने दूत द्वारा राक्षस की नामांकित मुद्रा पाना तथा कूटपत्र लिखकर भद्रभट आदि को विभिन्न कार्यों में नियुक्त करना 'यल' है। चतुर्थ एवं पंचम अंक में राक्षस एवं मलयकेतु में मतभेद उत्पन्न होना तथा राक्षस का मलयकेतु के अमात्य-पद से निष्कासित किया जाना 'प्राप्त्याशा' है । इस स्थिति में फल-प्राप्ति की सारी बाधाओं का निराकरण हो जाता है। षष्ठ अंक में राक्षस का चन्दनदास को बचाने के लिए वध-भूमि की ओर जाना 'नियताप्ति' है, क्योंकि अब यहां राक्षस का चाणक्य के समक्ष आत्म-समर्पण कर देना निश्चित हो जाता है। सप्तम अंक में राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त का मन्त्रित्व ग्रहण करना 'फलागम' है। उपर्युक्त पंच अवस्था के अतिरिक्त 'मुद्राराक्षस' में पंचसन्धियों का भी पूर्ण निर्वाह किया गया है। इसमें कथानक के अनुरूप ही चरित्रों की योजना की गयी है। इसके प्रमुख पात्र चाणक्य और राक्षस दोनों ही राजनैतिक दाव-घातों एवं फूटनीतिक चाल से सम्पन्न दिखाये गये हैं। मुद्राराक्षस के चरित्र प्रभावोत्पादक एवं प्राणवन्त हैं। इस नाटक में प्रत्येक चरित्र का स्वतंत्र व्यक्तित्व ' पर कहीं वह नायक से प्रभावित होता है तो नायक भी उससे प्रभावित दिखलाया गया है। 'मुद्राराक्षस का चरित-चित्रण आदर्श और यथार्थ की सीमाओं का परस्पर सम्मेलन है। मानव-जीवन का लोक में जो स्वरूप है वही मुद्राराक्षस के नाट्य-जगत् में अंकित और उन्मीलित है । नाट्यशास्त्र की मर्यादा की रक्षा करते हुए भी नाटककार विशाखदत्त ने ऐसे चरित की उद्भावना की है जो साधारण होते हुए भी विशिष्ट है, देशकाल से परिच्छिन्न होते हुए भी व्यापक है, नाटकीय होते हुए भी वास्तविक है और यथार्थ होते हुए भी आदर्श है ।' मुद्राराक्षस समालोचना-भूमिका पृ० २, डॉ. सत्यव्रत सिंह। इस नाटक का नामकरण 'मुद्राराक्षस' सार्थक है। इसकी व्युत्पति इस प्रकार हैमुद्रयागृहीतं राक्षसमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः, मुद्राराक्षसम् । इस नाटक में 'मुद्रा' (मुहर) के द्वारा राक्षस के निग्रह की घटना को आधार बनाकर इसका नामकरण किया गया है। इसका नामकरण वर्ण्यवस्तु के आधार पर किया गया है। राक्षस की नामांकित मुद्रा पर ही चाणक्य की समस्त कूटनीति केन्द्रित हुई है, जिससे राक्षस के सारे साधन व्यर्थ सिद्ध हुए। नायकत्व-'मुद्राराक्षस' के नायकत्व का प्रश्न विवादास्पद है। नाट्यशास्त्रीय विधि के अनुसार इसका नायक चन्द्रगुप्त ज्ञात होता है, क्योंकि उसे ही फल की प्राप्ति होती है। अर्थात् निष्कंटक राज्य एवं राक्षस ऐसे अमात्य को प्राप्त करने का वही अधिकारी होता है; पर कतिपय विद्वान्, कुछ कारणों से, चाणक्य को ही इसका नायक स्वीकार करते हैं। इस मत के पोषक विद्वान् विशाखदत्त को परम्परागत रूढ़ियों का
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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