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________________ मुखकोपनिषद ( ४०४) [मुद्राराक्षस पं. सुधाकर द्विवेदी ने भी अपने ग्रन्थ 'गणकतरंगिणी' में इस तथ्य को स्वीकार किया है। दे० गणकतरंगिणी पृ० २ । इन्होंने बोधगम्य एवं हृदयग्राह्यशैली में अपने ग्रंथ की रचना की है। इन्हें मंजुल भी कहा जाता है। आधारग्रन्थ-१. भारतीय ज्योतिष-श्रीशंकर बालकृष्ण दीक्षित (हिन्दी अनुवाद)। २. भारतीय ज्योतिष-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री। १. भारतीय ज्योतिष का इतिहासम. गोरखे प्रसाद। ___ लघुमानस-ल तथा परमेश्वर कृत संस्कृत टीका के साथ १९४४ ई० में प्रकाशित, सं० वी० डी० आप्टे । अंगरेजी अनुवाद एन० के० मजूमदार १९५१, कलकत्ता। मुण्डकोपनिषद्-यह उपनिषद् 'अथर्ववेद' की शौनक शाखा की है। इसमें तीन मुण्डक या अध्याय हैं। इसकी रचना पद्य में हुई है। इसके प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड हैं तथा ब्रह्मा द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया गया है। प्रथम भाग में ब्रह्म तथा वेदों की व्याख्या, दूसरे में ब्रह्म का स्वभाव एवं विश्व से उसका सम्बन्ध वर्णित है। तृतीय अध्याय में ब्रह्मज्ञान के साधनों का निरूपण है। इसमें मनुष्यों को जानने योग्य दो विद्याओं का उल्लेख है-परा और अपरा। जिसके द्वारा अक्षरब्रह्म का ज्ञान हो वह विद्या परा एवं चारो वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष आदि ( छह वेदांग) अपरा विद्या हैं। अक्षरब्रह्म से ही विश्व की सृष्टि होती है। जिस प्रकार मकड़ी जाला को बनाती और निगल जाती है, जिस प्रकार जीवित मनुष्य के लोम और केश उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अक्षरब्रह्म से इस विश्व की सृष्टि होती है (१।१७)। मुण. कोपनिषद्' में जीव और ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन दो पक्षियों के रूपक द्वारा किया गया है। एक साथ रहनेवाले तथा परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी (जीवात्मा और परमात्मा ) एक ही वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर निवास करते हैं। उनमें से एक (जीव) उस वृक्ष के फल का स्वाद लेकर उसका उपयोग करता है और दूसरा भोग न करता हुआ उसे केवल देखता है। यहां जीव को शरीर के कर्मफल का उपभोग करते हुए चित्रित किया गया है और ब्रह्म साक्षी रूप से उसे देखते हुए वणित है। मुद्राराक्षस-यह संस्कृत का प्रसिद्ध राजनैतिक तथा ऐतिहासक नाटक है । जिसके रचयिता हैं महाकवि विशाखदत्त (दे० विशाखदत्त )। इस नाटक में कुल सात बड़ है तथा इसका प्रतिपाद्य है चाणक्य द्वारा नन्द सम्राट के विश्वस्त एवं भक्त अमात्य राक्षस को परास्त कर चन्द्रगुप्त का विश्वासभाजन बनाना। इसके कथानक का मूलाधार है नन्दवंश का विनाश कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना करना तथा चाणक्य के विरोधियों को नष्ट कर चन्द्रगुप्त के मार्ग को प्रशस्त करना । नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार द्वारा चन्द्रग्रहण का कथन किया गया है और पर्दे के पीछे से चाणक्य की गर्जना सुनाई पड़ती है कि उसके रहते कौन चन्द्रगुप्त को पराजित कर सकेगा। प्रथम अंक में चाणक्य मञ्च पर उपस्थित होता है एवं उसके कथन से कथानक की पूर्वपीठिका का आभास होता है तथा भावी कार्यक्रम की भी रूपरेखा
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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