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महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य]
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[महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य
अनुवाद भाग १)। ३. मनु का राजधर्म-डॉ० श्यामलाल पाण्डेय । ४. प्राचीन भारतीय राजशास्त्र प्रणेता-डॉ० श्यामलाल पाण्डेय ।।
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक तथा विशुद्धद्वैतवाद नामक वैष्णवमत के प्रचारक महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म सं० १५३५ वैशाख कृष्ण एकादशी को मध्यप्रदेश के अन्तर्गत रायपुर जिला के चम्पारन नामक ग्राम में हुआ थो। उनके माता-पिता तैलंग ब्राह्मण थे जिनका नाम लक्ष्मणभट्ट एवं एखभागारू था। लक्ष्मणभट्ट काशी में हनुमान् घाट पर रहा करते थे। वल्लभाचार्य की सारी शिक्षा काशी में ही हुई । आचार्य वल्लभ ने 'भागवत' के आधार पर नवीन भक्ति-मार्ग का प्रवर्तन किया जो पुष्टिमार्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अपने सिद्धान्त के प्रचार तथा प्रकाशन के लिए उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की जिनमें मुख्य हैं-'अणुभाष्य' (ब्रह्मसूत्र के केवल ढाई अध्याओं पर भाष्य ), 'पूर्वमीमांसाभाष्य', 'तत्वदीपनिबन्ध', 'सुबोधिनी', (श्रीमद्भागवत की व्याख्या ), 'वोडशग्रंथ' ( सिद्धान्त विवेक सम्बन्धी १६ प्रकीर्ण ग्रंथ )। बल्लभाचार्य के पूर्व प्रधानत्रयी में 'ब्रह्मसूत्र', 'गीता' और 'उपनिषद को स्थान मिला था; किन्तु उन्होंने 'श्रीमदभागवत' की 'सुबोधिनी' टीका के द्वारा प्रस्थानचतुष्टय के अन्तमंत उसका भी समावेश किया। इनके दार्शनिक सिद्धान्त को शुद्धाद्वैतवाद कहते हैं जो शांकर अद्वैत की प्रतिक्रिया के रूप में प्रवत्तित हुआ था। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म माया से मालिप्त होने के कारण नितान्त शुद्ध है। इसमें मायिक ब्रह्म की सत्ता स्वीकार नहीं की गयी है। मायासंबन्धरहितं शुदमित्युच्यते बुधैः । कार्यकारणरूपं हि शुद्धं ब्रह्म न मायिकम् ॥ शुद्धाद्वैतमार्तण्ड २८ ।। - आचार्य शंकर के अद्वैतवाद से भिन्नता प्रदर्शित करने के लिए इसमें शुख विशेषण लगाया गया है । अद्वैतमत से माया-शबलित ब्रह्म ही जगत् का कारण है, किन्तु वल्लभमत के अनुसार अत्यन्त शुद्ध या माया से रहित ब्रह्म ही जगत का कारण है। शंकराचार्य ने ब्रह्म के दो रूपों की कल्पना की है-नामरूप उपाधिविशिष्ट सगुण ब्रह्म तथा उपाधिरहित निर्गुण ब्रह्म। इनमें से द्वितीय को ही शंकर श्रेष्ठ मानते हैं और प्रथम को माया से युक्त होने के कारण हीन स्वीकार करते हैं । पर, वहभाचार्य के अनुसार ब्रह्म के दोनों ही रूप सत्य हैं। ब्रह्म विरुद्ध धर्मों का आश्रय होता है, वह एक ही समय में निर्गुण भी होता है और सगुण भी। भगवान् अनेक रूप होकर भी एक है तथा स्वतन्त्र होकर भी भक्तों के वश में रहता है। उनके अनुसार श्रीकृष्ण ही परमसत्ता या भगवान् हैं जो अखिल रसामृत मूर्ति तथा निखिल लीलाधाम परब्रह्म हैं। वलभमत में ब्रह्म जगत् का स्वाभाविक कर्ता है तथा इस व्यापार में वह माया की सहायता नहीं लेता। अर्थात् संसार की दृष्टि में माया का हाथ नहीं होता। भगवान् में आविर्भाव और तिरोभाव की दो शक्तियां होती हैं। वे सृष्टि और प्रलय इन्हीं शक्तियों के द्वारा स्वभाविक रूप से करते हैं । जगत की सृष्टि में ब्रह्म की लीला ही क्रियाशील होती है । वे इच्छानुसार जगत् की सृष्टि एवं प्रलय किया करते हैं । भगवान् आविर्भावशक्ति के द्वारा सृष्टि के रूप में अपने को परिणत कर देता है, किन्तु. तिरोभाव के द्वारा संसार को अपने में समेट कर प्रलय कर देता है। वहभमत से जीव और जगत् दोनों ही सत्य हैं, पर