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अमरचन्द्र और अरिसिंह ]
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[ अमरचन्द्र ओर अरिसिंह
तथा विदूषक के दृश्य में राजा के हृदय में क्रोध का भाव प्रकट होता है एवं राक्षसों से लड़ने के लिए राजा के जाने में वीररस की व्याप्ति है । कवि ने राजा के हृदय में उत्साह को उद्बुद्ध किया है। सप्तम अंक में मातलि की राजविषयारति का वर्णन
है तथा आकाशमार्ग से रथ के उतरने में विस्मय का भाव एवं मुनिविषयारति का रस का सुन्दर परिपाक है एवं दुष्यन्त शकुन्तला के वर्णन है ।
अद्भुत रस है । वर्णन है ।
मारीच सर्वदमन के पुनर्मिलन में
ऋषि के आश्रम में दृश्य में वात्सल्य संयोग श्रृङ्गार का
भाषा-शैली - अभिज्ञान शाकुन्तल की भाषा प्रवाहमयी, प्रसादपूर्ण, परिष्कृत, परिमार्जित एवं सरस है । इसमें मुख्यतः वैदर्भी रीति का प्रयोग किया गया है । शैली
दीर्घसमस्त पदों का आधिक्य नहीं है । कवि ने अल्प शब्दों में गम्भीर भावों को भरने का प्रयास किया है । शकुन्तला को देख कर दुष्यन्त के हृदय में उदित होने वाली प्रेम-भावना को अत्यन्त नैपुण्य के साथ व्यक्त किया गया है । कवि ने पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग कर नाटक को अधिक व्यावहारिक बना दिया है । इसमें संस्कृत के अतिरिक्त सर्वत्र शौरसेनी प्राकृत प्रयुक्त हुई है । कालिदास मुख्यतः कोमल भावनाओं के कवि हैं, अतः उनके छन्द-विधान में भी शब्दावली की सुकुमारता एवं मृदुलता दिखाई पड़ती है । कवि ने प्रकृति की मनोरम रंगभूमि में शकुन्तला के कथानक का निर्माण किया है । कहीं तो प्रकृति मानव की सहचरी के जीव चित्रित की गयी है और कहीं उपयोग किया गया है । चतुर्थ अंक कर मानव एवं मानवेतर प्रकृति के बीच रागात्मक सम्बन्ध स्थापित किया गया है । इसमें प्रकृति-वर्णन के द्वारा बिम्बग्रहण कराते हुए भावी घटनाओं का भी संकेत हुआ है । [ दे० कालिदास ] यह नाटक अपनी रोचकता, अभिनेयता, काव्यकौशल, रचनाचातुर्य एवं सर्वप्रियता के कारण संस्कृत के सभी नाटकों में उत्तम माना जाता है ।
रूप में चेतन और
लिए इसका
वर्णन के प्रकृति को
पृष्ठाधार को शकुन्तला के
में
जीवन में
परिव्याप्त
आधार -ग्रन्थ -- १. अभिज्ञान शाकुन्तल - हिन्दी अनुवाद ( चौखम्बा ) २. संस्कृत नाटक-समीक्षा - श्री इन्द्रपाल सिंह 'इन्द्र' ३. महाकवि कालिदास - डॉ रमाशंकर तिवारी ४. संस्कृत नाटक – कीथ ( हिन्दी अनुवाद ) ५. संस्कृत नाटककार - श्री कान्तिचन्द भरतिया ।
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सजाने के
अमरचन्द्र और अरिसिंह - काव्यशास्त्र के आचार्यं । दोनों ही लेखक जिनदत्तसूरि के शिष्य हैं और इन्होंने संयुक्त रूप से 'काव्यकल्पलता' नामक ग्रन्थ की रचना की हैं । इनका समय १३ वीं शताब्दी का मध्य है । इस ग्रन्थ में काव्य को व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करने वाले तथ्यों या कविशिक्षा का वर्णन है । इसका प्रारम्भिक अंश अरिसिंह ने लिखा था और उसकी पूर्ति अमरचन्द्र ने की थी । अमरचन्द्र ने इस पर वृत्ति की भी रचना की है । 'काव्यकल्पलता' या 'काव्यकल्पलतावृत्ति' की रचना चार प्रतानों में हुई है तथा प्रत्येक प्रतान अनेक अध्यायों में विभक्त हैं। चारों प्रतानों के वर्णित विषय हैं - छन्दः सिद्धि, शब्दसिद्धि, श्लेषसिद्धि एवं अर्थसिद्धि । 'काव्यकल्पलता