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________________ भास] (३५२ ) [भास 'इहामपि महींकृत्स्ना राजसिंह प्रशास्तु नः' या इसी भाव के पद्य से होता है । ४-इनमें भरत के नाट्यशास्त्रीय नियमों का पूर्णतः निर्वाह नहीं किया गया है । भरत जिन दृश्यों को रङ्गमंच पर वर्जित मानते हैं उन्हें भी इन नाटकों में दिखलाया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि ये नाटक उस समय लिखे गए थे जबकि नाट्यशास्त्र के सिद्धान्त पूर्णरूप से प्रतिष्ठित नहीं हो पाये थे। ५-सभी नाटकों के प्रारम्भिक श्लोक में मुद्रालंकार दिखाई पड़ता है और इनमें समान संघटना प्राप्त होती है । ६-राजशेखर प्रभृति कई भाचार्यों ने इन नाटकों में से एक नाटक 'स्वप्नवासवदत्तम्' का उल्लेख किया है । ७भास कृत नाटकों के कई उखरण अनेक अलंकार ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। जैसे, वामन ने स्वप्नवासवदत्तम्, प्रतिज्ञायौगन्धरायण एवं चारुदत्त के उद्धरण दिये हैं तथा भामह ने प्रतिज्ञायौगन्धरायण की पंक्तियां उद्धृत की हैं । दण्डी ने 'लीम्पतीव तमोंगानिवर्षतीवांजन नभः' आदि पद्यों को उद्धृत किया है। अभिनवगुप्तकृत 'अभिनवभारती' एवं 'लोचन' में 'स्वप्नवासवदत्तम्' का उल्लेख किया गया है। ८-इन नाटकों की भाषा में अनेक अपाणिनीय प्रयोग प्राप्त होते हैं, अतः इनकी संस्कृत को शुद्ध शास्त्रीय नहीं कहा जा सकता। इनकी अली सरल है एवं इनमें कालिदासीय स्निग्धता का अभाव है। इनमें प्रयुक्त प्राकृत भी कालिदास से प्राचीन सिद्ध होती है तथा इनकी भाषा एवं शैली में व्यापक समानता दिखाई पड़ती है । ९-सभी नाटकों में समान शब्दों एवं दृश्यों का विधान किया गया है । बालि, दुर्योधन तथा दशरथ सभी को मृत्यु के पश्चात् नदी का दर्शन करने का वर्णन है तथा सभी के लिए देव-विमान आते हैं । १०-कई नाटकों में समान वाक्य प्रयुक्त किये गये हैं। जैसे जन-समुदाय के राज-मार्ग पर बढ़ जाने पर मार्ग को साफ रखने के लिए इस वाक्य का प्रयोग 'उस्सरह उस्सरह अय्या! उम्सरह ! ११- इसमें समान नाटकीय संघटना अवतारणा की गयी है । उदाहरणार्थ 'अभिषेक' एवं 'प्रतिमा' नाटकों में सीता रावण की प्रार्थना को अस्वीकार कर उसे शाप दे देती है तथा 'चारुदत' नाटक में वसन्तसेना द्वारा शकार के प्रणय-निवेदन को अस्वीकृत कर देने का वर्णन है। १२-प्रायः सभी नाटकों में युद्ध की सूचना भाट एवं ब्राह्मण आदि द्वारा दी गयी है । भावों की समानता भी सभी नाटकों में दिखाई पड़ती है । इन समानताओं के कारण सभी नाटकों का रचयिता एक ही व्यक्ति सिद्ध होता है। ___भास की निश्चित तिथि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। विद्वानों ने इनका समय ईस्वी पूर्व ६ठी शताब्दी से लेकर ११वीं शताब्दी तक स्वीकार किया है। अन्तः एवं बहिःसाक्ष्यों के आधार पर इनका समय ई० पू० चतुर्थ एवं पश्चम शतक के मध्य निर्धारित किया गया है। अश्वघोष एवं कालिदास दोनों ही भास से प्रभावित हैं। अतः इनका दोनों का पूर्ववर्ती होना निश्चित है। कालिदास का समय ई० पू० प्रथम शती माना गया है। भास में अपाणिनीय प्रयोगों की बहुलता देखकर इनकी प्राचीनता सन्देह से परे सिद्ध हो जाती है। अनेक पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों के मत का ऊहापोह करने के पश्चात् आ० बलदेव उपाध्याय ने अपना निर्णय इस प्रकार दिया है। "इस प्रकार बाह्य साक्ष्यों से भास का समय ४ थी सदी ई० पू० मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं पड़ती तथा ये बाह्य साक्ष्य
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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