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________________ भारवि] ( ३४६ ) [भारवि पवंत, षष्ठ में युवतिप्रस्थान, अष्टम में सुराङ्गना-विहार एवं नवम सर्ग में सुरसुन्दरीसंभोग का वर्णन है । किरातार्जुनीय का प्रारम्भ 'श्री' शब्द (श्रियः कुरूणामधिपस्य पालिनीम्) से हुआ है तथा प्रत्येक शब्द के अन्तिम श्लोक में 'लक्ष्मी' शब्द आया है। इसमें कथावस्तु के संग्रथन में अन्य अनेक विषय भी अनुस्यूत हो गए हैं-जैसे, राजनीतिनैपुण्य, मुनि-सहकार, पर्वतारोहण, व्यास-मुनि, अप्सरा, शिविर-सन्निवेश, गन्धवं तथा अप्सराओं का पुष्पावचय, सायंकाल, चन्द्रोदय,पानगोष्ठी, प्रभात, अर्जुन की तपस्या एवं युद्ध । ___ भारवि मुख्यतः, कलापक्ष के कवि हैं। इनका ध्यान पदलालित्य एवं अर्थगाम्भीयं दोनों पर ही रहता है। इनमें भी अर्थगाम्भीर्य भारवि का प्रिय विषय है। शाब्दी क्रीड़ा प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति इनमें है अवश्य, किन्तु वह परिमित क्षेत्र में दिखाई पड़ती है। कवि ने पंचम एवं पंचदश सों में शाम्दी-क्रीड़ा का प्रदर्शन किया है। सम्पूर्ण पन्द्रहवां सगं चित्रकाव्य में रचित है जिसमें पूरे के पूरे श्लोक एकाक्षर हैं। डॉ. कीथ ने इनकी इस प्रवृत्ति की आलोचना की है-"विशेषतया पन्द्रह सर्ग में उन्होंने अत्यन्त मूर्खतापूर्ण ढङ्ग से अत्यधिक श्रम-साध्य चित्रकाव्य की रचना का प्रयत्न किया है जो अलेग्जेंड्रियन कवियों की अत्यन्त कृत्रिमता का स्मरण दिलाता है। इस प्रकार एक पद्य में पहली और तीसरी, तथा दूसरी और चौथी पंक्तियां समान हैं। एक दूसरे पद्य में चारों समान हैं; एक में लगभग च और र का ही प्रयोग किया गया है। दूसरे में केवल स, श, य और ल वर्ण ही हैं, अन्य पद्यों में प्रत्येक पंक्ति उल्टी तरफ से ठीक उसी प्रकार पढ़ी जाती है जैसे आगे वाली पंक्ति, या पूरा पद्य ही उल्टा पढ़ा जाने पर अगले पद्य के समान हो जाता है; एक पद्य के तीन अर्थ निकलते हैं; दो में कोई ओष्ठ्य वर्ण नहीं हैं; अथवा प्रत्येक पद्य सीधी तथा उल्टी ओर से एक ही रूप में पढ़ा जा सकता है ।" संस्कृत साहित्य का इतिहास पृ० १६९ । एक उदाहरण-न नोननुनो नुन्नोनो नाना नानानना ननु । नुन्नोऽनुनो न नुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् ॥ किरात १५३१४ । “अरे अनेक प्रकार के मुख वालो ! निकृष्ट व्यक्ति द्वारा विद्ध किया गया पुरुष पुरुष नहीं है और निकृष्ट व्यक्ति जो विद्ध करता है वह भी पुरुष नहीं है। स्वामी के अबिद्ध होने पर विद्ध भी पुरुष अबिद्ध ही है और अतिशय पीड़ित व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाने वाला व्यक्ति निर्दोष नहीं होता।" भारवि ने काव्यादर्श के सम्बन्ध में 'किरातार्जुनीय' में विचार किया है और यथासम्भव उस पर चलने का प्रयास भी किया है। युधिष्ठिर के शब्दों में अपनी काव्यशैली के आदर्श को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है-स्फुरता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतमर्थगौरवम् । रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यमपोहितं क्वचित् ।। २।२७। इसमें चार तत्त्वों का विवेचन है-क-पदों के द्वारा अर्थ की स्पष्ट अभिव्यक्त का होना, ख-अर्थगाम्भीर्य, ग-नये-नये अर्थों की अभिव्यक्ति तथा घ-वाक्यों में परस्पर सम्बन्ध का होना अर्थात् अभीष्ट अर्थ प्रदर्शित करने की शक्ति का होना। भारवि काव्य में कोमलकान्त पदावली श्रुतिमधुर शब्दों के प्रयोग के भी पक्ष में हैं-विविक्तवर्णाभरणा सुखश्रुतिः प्रसादयन्ती हृदयान्यपि द्विषाम् ।।१४।३। इन्हीं विशेषताओं के कारण भारवि की प्रसिद्धि संस्कृत साहित्य में अधिक है। काव्य
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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