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________________ भारवि] ( ३४४ ) [भारवि में इन्हें ब्रह्म, वृहस्पति एवं इन्द्र के पश्चात् चतुर्थ वैयाकरण माना गया है । इसमें यह भी उल्लिखित है कि भारद्वाज को इन्द्र द्वारा व्याकरणशास्त्र की शिक्षा प्राप्त हुई थी। इन्द्र ने उन्हें घोषवत् एवं ऊष्म वर्णों का परिचय दिया था। 'ऋक्तन्त्र'-१४ वायुपुराण' के अनुसार भारद्वाज को पुराण की शिक्षा तृणंजय से प्राप्त हुई थी [१०३। ६३ | । 'अर्थशास्त्र' ( कौटिल्य कृत ) से ज्ञात होता है कि भारद्वाज ने किसी अर्थशान की भी रचना की थी [ १२।१ ) । भारद्वाज बहुप्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की थी। 'वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनका आश्रम प्रयाग में गङ्गा-यमुना के संगम पर था | अयोध्याकाण्ड सर्ग ५४] । उनकी कई रचनाएं हैं जिनमें अभी दो ही प्रकाशित हुई हैं। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं'भारद्वाज व्याकरण', 'आयुर्वेदसंहिता', 'धनुर्वेद', 'राजशास्त्र', 'अर्थशास्त्र' । प्रकाशित प्रन्थ -क-यन्त्रसर्वस्व (विमानशास्त्र )-आयं सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा, दिल्ली से प्रकाशित, ख-शिक्षा-भण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटयूट, पूना । आधारग्रन्थ-संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास-६० युधिष्ठिर मीमांसक भाग १। भारवि-संस्कृत के महान् कवि। संस्कृत महाकाव्य के इतिहास में 'अलंकृतशैली' का प्रवर्तक होने का श्रेय इन्हें ही है । 'किरातार्जुनीय' भारवि की एकमात्र अमर कृति है। इनका प्रामाणिक जीवन-वृत्त अभी तक अन्धकारमय है। इसका समयनिर्धारण पुलकेशी द्वितीय के समय के एक एहोल के शिलालेख से होता है जिसमें कवि रविकीति ने अपने आश्रयदाता को प्रशस्ति में महाकवि कालिदास के साथ भारवि का भी नाम लिया है। इस शिलालेख में जैन मन्दिर के निर्माण एवं पुलकेशी द्वितीय की गौरवगाथा है। उसी क्रम में कवि रविकीत्ति ने अपने को कालिदास एवं भारवि के मार्ग पर चलने वाला कहा है। शिलालेख का निर्माणकाल ६३४ ई है । येनायोजि न. वेश्मस्थिरमर्थविधी विवेकिना जिनवेश्म । स विजयतां रविकीत्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीतिः ॥ कवि ने जैन मन्दिर का निर्माण ६३४ ई० में कराया था। इससे सिद्ध होता है कि इस समय तक दक्षिण में भारवि का यश फैल गया था। इनके स्थितिकाल का पता एक दानपत्र से भी लगता है। यह दानपत्र दक्षिण के किसी राजा का है जिसका नाम पृथ्वीकोंगणि था । इसका लेखनकाल ६९८ शक (७७६ ई०) है । इसमें लिखा है कि राजा के सात पीढ़ी पूर्व दुविनीत नामक व्यक्ति ने भारवि कृत 'किरातार्जुनीय' के पन्द्रहवे सर्ग की टीका रची थी। इस दानपत्र से इतना निश्चित हो जाता है कि रवि का समय सप्तम शती के प्रथम चरण के बाद का नहीं हो सकता। वामन एवं जयादित्य की 'काशिकावृत्ति' में भी, जिसका काल ६५० ई० है, किरातार्जुनीय के श्लोक उद्धृत हैं। बागभट्ट ने 'हर्षचरित' में अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी कवियों का नामोल्लेख किया है, किन्तु उस सूची में भारवि का नाम नहीं है। इससे प्रमाणित होता है कि ६०० ई. तक भारवि उतने प्रसिद्ध नहीं हो सके थे । भारवि पर कालिदास का प्रभाव परिलक्षित होता है और माघ पर भारवि का प्रभाव पड़ा है। अतः इस दृष्टि से भारवि कालिदास के परवर्ती एवं माघ के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। विद्वानों ने भारवि का काल ५५० ई. स्वीकार किया है जो बाणभट्ट के पचास वर्ष पूर्व का है।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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