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________________ भानुवत ] ( ३४० ) [ भानुदत्त मंजरी, अन्तिम श्लोक । इन्होंने छह ग्रन्थों की रचना की है- रसमंजरी, रसतरङ्गिणी, अलङ्कारतिलक, चित्रचन्द्रिका, गीतगोरीश एवं कुमारभागंधीय । इनके द्वारा रचित 'शृङ्गारदीपिका' नामक ग्रन्थ भी हस्तलेख के रूप में प्राप्त होता है किन्तु निश्चित रूप से उसके लेखक के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता । 'रसमंजरी' मायक-नायिका भेद का अत्यन्त प्रीढ़ ग्रन्थ है जिसकी रचना सूत्रशैली में हुई है और स्वयं भानुदत्त ने उस पर विस्तृत वृत्ति लिख कर उसे अधिक स्पष्ट किया हैं । इसमें अन्य रसों को शृजन में गतार्थ कर आलम्बन विभाव के अन्तर्गत नायकनायिका भेद का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसपर आचार्य गोपाल ने १४२८ ई० में 'विवेक' नामक टीका की रचना की है। आधुनिक युग में कविशेखर पं० बदरीनाथ शर्मा ने सुरभि नामक संस्कृत व्याख्या लिखी है जो चोखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित है। इसकी हिन्दी व्याक्या ( आ० जगन्नाथ पाठक कृत ) चौखम्बा से ही प्रकाशित हो चुकी है। 'रसतरङ्गिणी' रस-सम्बन्धी वैज्ञानिक विवेचन करने वाला ग्रन्थ है । इसमें आठ तरङ्ग हैं जिनमें भाव एवं स्थायिभाव, विभाव एवं उसके भेद, कटाक्षादि अनुभाव सात्त्विकभाव, व्यभिचारीभाव, नो रस तथा शृङ्गार रस का विवेचन, हास्य तथा अन्य रस, स्थायी एवं व्यभिचारिभावों का विवेचन है । इसमें रससम्बन्धी अनेक नवीन विषयों का निरूपण है । 'अलंकारतिलक' में पांच परिच्छेद हैं तथा 'सरस्वतीकण्ठाभरण' का अनुकरण किया गया है । इसमें ६ शब्दालंकार एवं ७१ अर्थालंकार वर्णित हैं। 'गीतगौरीश' गीतिकाव्य है जिसमें दस सगं हैं। इसकी रचना गीतगोविन्द के आधार पर हुई है । अलङ्कारतिलक में काव्य के विभिन्न अङ्गों - अलङ्कार, गुण, रीति, दोष तथा काव्यभेद का वर्णन है । भानुदत्त की प्रसिद्धि मुख्यतः 'रसमंजरी' एवं 'रसतरङ्गिणीं' के कारण है । ये रसवादी आचार्य हैं। इन्होंने दोनों ही ग्रन्थों में श्रृङ्गार का रसराजत्व स्वीकार करते हुए अन्य रसों का उसी में अन्तर्भाव किया है। इन्होंने रस को काव्य की आत्मा माना है । ये काव्य को शरीर, गति, रीति, वृत्ति, दोषहीनता, गुण और अलङ्कार को इन्द्रियाँ, व्युत्पत्ति को प्राण एवं अभ्यास को मन मानते हैं । [ अलङ्कार. तिलक में ! काभ्य के तीन प्रकार हैं-उत्तम, मध्यम एवं अधम तथा भाषा के विचार से भानुदत्त काव्य के चार प्रकार मानते हैं-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं मिश्र । ये शब्द और अर्थ को काव्य एवं रीतियों को काव्य का धर्म मानते हैं । इन्होंने रस के अनुकूल विकार को भाव कहा है तथा इन्हें रस का हेतु भी माना है । भानुदत्त ने रस के दो प्रकार माते हैं-लौकिक एवं अलौकिक । लौकिक रस के अन्तर्गत शृङ्गारादिरसों का वर्णन है और अलोकिक के तीन भेद किये गए हैंStars, मनोथिक एवं ओपनायिक । इन्होंने 'रसतरंगिणी' के सप्तम तरंग में माया रस का वर्णन किया है । 'रसतरंगिणी' का हिन्दी टीका के साथ प्रकाशन वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से हुआ है । आधारग्रन्थ - १ - संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास- डॉ० पा० वा० काणे । २ - भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिनिधि सिद्धान्त - राजवंश सहाय 'हीरा' चौखम्बा प्रकाशन ।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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