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________________ भवभूति ] ( ३३४ ) [ भवभूति मूर्तिः' श्लोकरचनासन्तुष्टेन राज्ञाभवभूतिरिति ख्यापितः । 'मालतीमाधव' के टीकाकार जगद्धर के मतानुसासार इनका नाम श्रीनीलकण्ठ था - 'नाम्ना श्रीकण्ठः प्रसिद्धया भवभूतिरित्यर्थः । इस सम्बन्ध में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है कि क्या भवभूति उम्बेकाचार्य से अभिन्न थे । 'मालतीमाधव' के एक हस्तलेख के तृतीय अंक की पुष्पिका में इसके लेखक का नाम उम्बेक दिया गया है। उम्बेक मीमांसाशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् और कुमारिलभट्ट के शिष्य थे । इन्होंने कुमारिल रचित 'श्लोकवातिक' की टीका भी लिखी है । म० म० कुप्पुस्वामी शास्त्री, म० म० पा० वा० गुणे, एस० आर० रामनाथ शास्त्री उम्बेक एवं भवभूति को एक ही व्यक्ति मानते हैं । पण्डित बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का समर्थन करते हैं। पर कुछ विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। डॉ० कुन्हन राजा एवं म० म० डॉ० मिराशी ने भवभूति एवं उम्बेक को भिन्न व्यक्ति माना है । कुन्हन राजा भवभूति के मीमांसक होने पर भी सन्देह प्रकट करते हैं। इनके अनुसार इनका आग्रह वेदान्त पर अधिक था। पर डॉ० राजा का कथन इस आधार पर खण्डित हो जाता है कि भवभूति ने स्वयं अपने को 'पदवाक्यप्रमाणज्ञ' कहा है। डॉ० मिराशी के अनुसार दोनों का समय भिन्न है । उम्बेक का रचनाकाल ७७५ ई० है और भवभूति आठवीं शती के आदि चरण में हुए थे । विशेष विवरण के लिए देखिए . प्रोसीडिंग्स ऑफ सेकेण्ड ओरियण्टल कान्फेन्स ( १९२३), म० म० कुप्पुस्वामी शास्त्री पृ० ४१०-१२ ख. उत्तररामचरित - काणे द्वारा सम्पादित (भूमिका) तथा धर्मशास्त्र का इतिहास ( अंगरेजी ) भाग ५ पृ० १९८८ - ९९, ग. तात्पर्य टीका की प्रस्तावना - डॉ० कुन्हन राजा पृ० ३०, घ. स्टडीज इन इण्डोलाजी भाग १, पृ० ४५, डॉ० मिराशी - भवभूति और उम्बेक की एकता प्राचीन काल से ही चली आ रही है अतः दोनों को पृथक-पृथक् व्यक्ति स्वीकार करना ठीक नहीं है । भवभूति ने लिखा है कि उनके नाटक कालप्रियनाथ के उत्सव पर खेलने के लिए ही लिखे गए थे । विद्वानों ने कालप्रियनाथ का तादात्म्य मालवास्थित उज्जैन के महाकाल से किया है । अत्र खलु भगवतः कालप्रियनाथस्य यात्रायामार्यमिश्रान् विज्ञापयामि — उत्तररामचरित पृ० ४ काणे सम्पादित भगवतः कालप्रियनाथस्य यात्रायामायंमिश्राः समादिशन्ति । महावीरचरित ( चौखम्बा ) पृ० २ । भवभूति ने नाटकों की प्रस्तावना में अपना समय निर्दिष्ट नहीं किया है अतः इनका काल-निर्णय विवादास्पद बना हुआ है । इनके सम्बन्ध में प्रथम उल्लेख वाक्पतिराज कृत 'गडबहो' में मिलता है। इसमें कवि ने भवभूतिरूपी सागर से निकलते हुए काव्यामृत की प्राशंसा की हैभवभूतिजलधि - निर्गत काव्यामृतरस कणा इव स्फुरन्ति । यस्य विशेषा अद्यापि विकटेषु कथाfनवेशेषु ॥ ७९९ ॥ वाक्पतिराज कान्यकुब्जनरेश यशोवर्मा के सभाकवि थे जिनका समय ७५० ई० है । भवभूति भी जीवन के अन्तिम दिनों में यशोवर्मा के आश्रित हो गये थे । 'राजतरंगिणी' में लिखा है कि यशोवर्मा की सभा में भवभूति आदि कई कवि थे— कविर्वाक्पति राजश्रीभवभूत्यादिसेवितः । जितो यमो मथोवर्मा सद्गुणस्तुतिवन्दिताम् ||४|१४४|| वामन के 'काव्यालंकार' में भवभूति के पथ उदधृत हैं-काव्यालंकारसूत्रवृत्ति
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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