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________________ भट्टि] (३२६ ) [भट्टि नूनं संवर्धयिष्यति । १।१४ 'आर्य भीमसेन के ऋद्ध होने पर विद्युत्प्रकाश के सहश जो ज्योति बढ़ी, अब उसे वर्षा ऋतु की भांति कृष्णा अवश्य ही बढ़ायेगी।' भट्टनारायण ने विविध छन्दों का प्रयोग कर अपनी विदग्धता प्रदर्शित की है। 'वेणीसंहार' में अट्ठारह प्रकार के छन्दों का प्रयोग है जिनमें मुख्य हैं-वसन्ततिलका (३९), शिखरिणी (३५), शार्दूलविक्रीडित (३२) तथा नग्धरा (२०)। कवि ने शोरसेनी एवं मागधी दो प्रकार की प्राकृतों का प्रयोग किया है। मागधी का प्रयोग राक्षसरामसियों के वर्तालाप में हुआ है । केवल तृतीय अंक के विष्कम्भक में )। - आधारग्रन्थ-१. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर-डॉ. हे तथा दासगुप्त । २. संस्कृत साहित्य का इतिहास-पं० बलदेव उपाध्याय । ३. संस्कृत सुकवि-समीक्षापं० बलदेव उपाध्याय । ४. संस्कृत नाटक-कीय (हिन्दी अनुवाद)। ५. संस्कृत-कविदर्शन-डॉ. भोलाशंकर व्यास । ६. संस्कृत के महाकवि और काव्य-डॉ० रामजी उपाध्याय । ७. संस्कृत-काव्यकार-डॉ० हरिदत्त शास्त्री । ८. ८ वेणीसंहार-ए क्रिटिकल स्टडी-प्रो० ए०वी० गजेन्द्रमदकर । भट्टि-भट्टिकाव्य या 'रावणवध' महाकाव्य के रचयिता महाकवि भट्टि हैं। उन्होंने संस्कृत में शास्त्र-काव्य लिखने की परम्परा का प्रवर्तन किया है। भट्टि मूलतः बयाकरण बोर अलङ्कारशास्त्री हैं जिन्होंने व्याकरण बीर बलकार की, (सुकुमारमति राजकुमारों या काव्यरसिकों को ) शिक्षा देने के लिये अपने महाकाव्य की रचना की थी। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य है व्याकरणशास्त्र के शुद्ध प्रयोगों का संकेत करना, जिसमें वे पूर्णतः सफल हुए हैं। कतिपय विद्वानों ने भट्टि शब्द को 'भर्तृ' शब्द का प्राकृत रूप मानकर उन्हें भर्तृहरि से अभिन्न माना है, पर यह बात सत्य नहीं है। डॉ. बी० सी० मजूमदार ने ( १९०४ ई० में जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी पृ० ३०६ एफ में) एक लेख लिख कर यह सिद्ध करना चाहा था कि भट्टि मन्दसोर शिलालेख के वत्सभट्टि एवं शतकत्रय के भर्तृहरि से अभिन्न हैं। पर इसका खण्डन डॉ० कोष ने उसी पत्रिका में (१९०९ ई.) निबन्ध लिख कर किया (पृ. ४३५)। डॉ० एस० के० डे ने भी कोष के कथन का समर्थन किया है। [दे० हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर पृ० १८० द्वितीय संस्करण ] भट्टि के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती। ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपने सम्बन्ध में यह श्लोक लिखा है-काव्यमिदं विहितम् मया बलभ्या श्रीधरसेन नरेन्द्रपालितायाम् । कीतिरतो भवतान्नृपस्य तस्य क्षेमकरः मितिपो यतः प्रजानाम् ॥ इससे पता चलता है कि भट्टि को बलभीनरेश श्रीधरसेन की सभा में अधिक सम्मान प्राप्त होता था। शिलालेखों में बलभी के चार श्रीधरसेन संज्ञक राजाओं का कद मिलता है। प्रथम का काल ५०० ई. के लगभग एवं अन्तिम का समय के आसपास है। श्रीधर द्वितीय के एक शिलालेख में किसी भट्टि नामक विद्वान् को कुछ भूमि देने की बात उशिखित है। इस शिलालेख का समय ६१. ई. के निकट है अतः भट्टि का समय सातवीं सदी के मध्यकाल से पूर्व निश्चित होता है। उनका अन्य 'रावधव' के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें २२ सर्ग एवं
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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