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प्रश्नोपनिषद् ]
( २९८)
[प्रातिशाख्य
भाधारग्रन्थ-[प्रशस्तपादभाष्य का हिन्दी अनुवाद-चौखम्बा] १. इण्डियन. फिलॉसफो भाग २-डॉ. राधाकृष्णन् । २. भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय ।
प्रश्नोपनिषद्-यह 'अथर्ववेद' की पिप्पलादशाखा का ब्राह्मणभाग है। इसमें पिप्पलाद ऋषि ने सुकेशा, सत्यवान् ( शिवि के पुत्र) आश्वलायन, भार्गव, कात्यायन
और कबन्धी नामक ६ व्यक्तियों के प्रश्नों का उत्तर दिया है, इसलिए इसे 'प्रश्नोपनिषद्' कहते हैं। यह उपनिषद् गद्यात्मक है तथा इसमें उठाये गए सभी प्रश्न अध्यात्मविषयक हैं। (क) समस्त प्राणी जगत् या प्रजा की उत्पत्ति कहाँ से होती है ? ( ख ) कितने देवता या दैवी शक्तियां प्रजाओं को धारण करती हैं ? उन्हें कोन प्रकाशित करता है तथा उन देवी शक्तियों में कौन श्रेष्ठतम है। (ग) प्राणों की उत्पत्ति किससे होती है ? वे इस मनुष्य-शरीर में कैसे प्रवेश करते हैं ? तथा वे अपने को किस प्रकार विभाजित कर शरीर में रहते हैं ? (घ) मनुष्य की जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्थाओं का आध्यात्मिक रहस्य क्या है ? तथा जीवन की समस्त शक्ति या सबकेसब देवता किसमें सर्वभाव से स्थित रहते हैं ? ( 3 ) ओंकार की उपासना का रहस्य क्या है ? तथा इससे किस लोक की प्राप्ति होती है ? (च) षोडसकला-सम्पन्न पुरुष कहाँ है और उसका स्वरूप क्या है ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में अध्यात्मविषयक सभी समस्याओं का समाधान किया गया है। सभी प्रश्नों के उत्तर में प्राण की महिमा, उसका स्वरूप, ओंकार की उपासना, सोलह कलासम्पन्न पुरुष या परब्रह्म का आध्यात्मिक दृष्टि से वर्णन तथा अक्षर ब्रह्म को इस जगत् का अधिष्ठाता माना गया है ।
आधार प्रन्य-कठोपनिषद्-चौखम्बा प्रकाशन ।
प्राकपाणिनि कतिपय वैयाकरण-रोति-पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय ३००० वि० पू० है। इनका उल्लेख 'काशिका' में वैयाकरण के रूप में है ( ६।२।३६ ) । शौनकि-समय ३००० वि० पू० । इनका विवरण 'चरकसंहिता' के टीकाकार जज्झट के एक उद्धरण.से प्राप्त होता है। २।२७ । गौतम-इनका विवरण 'महाभाष्य' में है जहां इन्हें आपिशलि, पाणिनि प्रभृति वैयाकरणों की पंक्ति में बैठाया गया है ( ६।२।३६ ) । इस समय गौतम रचित 'गौतमीशिक्षा' प्राप्त होती है और वह काशी से प्रकाशित हो चुकी है। इन्होंने 'गौतमगृह्यसूत्र' तथा 'गोतमधर्मशास्त्र' की भी रचना की थी। व्याडि-इनके अनेक मतों के उद्धरण 'शौनकीय ऋप्रातिशाख्य' में उपलब्ध होते हैं । पुरुषोत्तमदेव ने भी गालव के साथ भाषावृत्ति में ( ६।१७०) व्याडि के मत का उल्लेख किया है । परम्परा में ये पाणिनि के मामा कहे गए हैं।
आधारग्रन्थ-संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास---पं० युधिष्ठिर मीमांसक ।
प्रातिशाख्य-इन्हें शिक्षा नामक वेदांग का अंग माना जाता है [ दे० वेदांग ] । इनके प्रतिपाद्य विषय हैं-उच्चारण, स्वरविधान, सन्धि, ह्रस्व का दीर्घ-विधान एवं संहिता-पाठ से सम्बद्ध अन्य विषय । संहिता-पाठ का पद-पाठ के रूप में परिवर्तित होने वाले विषयों का भी वर्णन इनमें होता है। कुछ प्रातिशाख्यों में वैदिक छन्दों का भी वर्णन है । इनका महत्व दो दृष्टियों से अधिक है। प्रथम तो ये भारतीय व्याकरण