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________________ पुराण ] [ पुराण एवं आत्यंतिक | वंश - ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न किये गए सभी राजाओं की भूत, भविष्य एवं वर्तमानकालीन सन्तान परम्पराएँ वंश कही जाती हैं। इसमें ऋषिवंश की भी परम्पराएँ आ जाती हैं। मन्वन्तर - मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, ऋषि तथा भगवान् के अंशावतार ये छह प्रकार की घटनाएँ मन्वन्तर कही जाती हैं। मन्वन्तर शब्द पुराणानुसार विभिन्न प्रकार की कालगणना करने वाला शब्द है । मन्वतर १४ हैं और प्रत्येक मन्वन्तर के अधिपति को मनु कहते हैं। वंश्यानुचरित - विभिन्न वंशों में उत्पन्न विशिष्ट वंशधरों तथा उनके मूल पुरुषों के चरित्र के वर्णन को वंशानुचरित कहते हैं । इसमें राजाओं एवं महर्षियों का चरित वर्णित होता है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में 'पुराणं पंचलक्षणम्' का नया संकेत प्राप्त होता है । सृष्टि-प्रवृत्ति-संहार-धर्म-मोक्ष प्रयोजनम् । ब्रह्मभिर्विविधैः प्रोक्तं पुराणं पंचलक्षणम् ॥ १ । ५ । इसमें पुराणविषयक पंचलक्षणों की नवीन व्याख्या है तथा धर्म को भी पुराण का एक अविभाज्य लक्षण मान लिया गया है । श्रीमद्भागवत एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण में महापुराण के दस लक्षण कथित हैं तथा उपर्युक्त पंचलक्षण क्षुल्लकपुराण के लक्षण स्वीकार किये गये | सर्गश्चाथ विसर्गश्च वृत्तीरक्षान्तराणि च । वंशो वंशानुचरितं संस्थाहेतुरपाश्रयः ॥ भागवत, १२७१९ वे हैं - सगं विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, अन्तराणि, वंश, वंशानुचरित, संस्था, हेतु तथा अपाश्रय । इन दस एवं पूर्वोक्त पांच लक्षणों में अधिक अन्तर नही दिखाई देता । सर्ग - यह सगं भी पूर्वोक्त सगं से मिलता-जुलता है । विसगं - जीव की सृष्टि ही विसर्ग है । अर्थात् परमात्मा की कृपा से सृष्टि करने के सामथ्र्य से युक्त होकर जब ब्रह्मा महत् तत्त्व आदि कर्मों के आधार पर सत् अथवा असत् भावनाओं के प्राधान्य से चराचर शरीरात्मक उपाधि से विशिष्ट जीवों की सृष्टि करते हैं तो उसे 'विसर्ग' कहा जाता है । एक प्राणी से अन्य प्राणी की सृष्टि ही विसगं है । वृत्ति - प्राणियों के जीवन निर्वाह की सामग्री को वृत्ति कहते हैं। रक्षा — रक्षा का अर्थ है विविध शरीर धारण कर भगवान् द्वारा संसार की रक्षा करना अथवा वेद-विरोधियों का संहार करना। इसका सम्बद्ध भगवान् के अवतारों से ही है । अन्तराणि - यह मन्वन्तर के ही समान है । वंश तथा वंशानुचरित पूर्ववत् हैं । संस्था - प्रतिसगं ही संस्था या प्रलय है। हेतु - हेतु का अभिप्राय जीव से है । वह अविद्या के कारण ही कर्म का कर्ता है । जीव ही अपने अदृष्ट के द्वारा विश्वसृष्टि एवं प्रलय का कारण बनता है अपाश्रय - ब्रह्म को ही अपाश्रय कहा जाता है जो जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति इन तीनों दशाओं से परे तुरीय तत्व के ही द्वारा परिलक्षित होता है । । सगं - सगं पुराणों का मद्य विषय है । इसे सृष्टिविद्या कहते हैं। पौराणिक सृष्टिक्रम पर सांख्यदर्शन में वर्णित सृष्टिक्रम का ही प्रभाव परिलक्षित होता है । पर कई दृष्टियों से इसका अपना पृथक् अस्तित्व भी है । सांख्यीय सृष्टिविद्या निरीश्वर है, किन्तु पौराणिक सृष्टिविद्या में सेश्वर तत्व का प्राधान्य है । सांख्य में प्रकृति और पुरुष के संसगं से ही सृष्टि का निर्माण होता है जो अनादि और अनन्त माने गये हैं । ( २८६ )
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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