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________________ नैषधीयचरित ] ( २५१ ) [नैषधीयचरित इसे और भी अधिक बढ़ाया होगा। नैषध के टीकाकार नारायण के मत का समर्थन करते हुए श्रीव्यासराज शास्त्री ने कहा है कि इसके अन्त में समाप्ति-सूचक मंगलाशा है । इस पर जितनी भी टीकाएं उपलब्ध हैं वे सभी २२ सगं तक ही प्राप्त होती हैं । विद्याधर की प्राचीनतम टीका २२ सगं तक ही है तथा इसकी अनेक हस्तलिपियों में इतने ही सर्ग हैं। पुस्तक की समाप्ति की सूचना २२ वें सगं में हो जाती है क्योंकि इस सग के १४९ वें श्लोक के पश्चात् चार श्लोक कवि एवं काव्य की प्रशंसा से सम्बद्ध हैं। इससे ज्ञात होता है कि कवि यहीं पर ग्रन्थ को समाप्त करना चाहता है। इस मत के विपरीत कतिपय विद्वानों ने अपनी सम्मति दी है। 'नैषधचरित' के नामकरण से ज्ञात होता है कि कवि ने नल के सम्पूर्ण जीवन की घटना का वर्णन किया था। पर, वर्तमान रूप में जो काव्य मिलता है वह नल का सम्पूर्ण वृत्त उपस्थित नहीं करता। इसके और भी कितने नाम प्राप्त होते हैं जिनमें भी इसे चरित कहा गया है-नलीयचरित, वैरसेनीचरित तथा भैमीचरित । विद्वानों का कहना है कि यदि यह काव्य नल-दमयन्ती के मिलन में ही समाप्त हो जाता तो इसका नाम 'नल-दमयन्ती-विवाह' या 'नल-दमयन्ती-स्वयंवर' रखना उचित था। नैषध काव्य के अन्तर्गत कई ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिनकी संगति वर्तमान काव्य से नहीं बैठती। जैसे कलि द्वारा नल का भविष्य में परिभव करने की घटना । नल-दमयन्ती-विवाह के समय पुरोहित द्वारा नल के वस्त्र को दमयन्ती के उत्तरीय के साथ बांधने पर कवि ने कल्पना की है कि "मानों इस सर्वज्ञ (पुरोहित ) ने भविष्य में वस्त्र को काट कर जाने वाले नल के प्रति अविश्वास को कहा।" इस कल्पना के द्वारा स्पष्ट रूप से 'महाभारत' में वर्णित नल के जीवन की घटना का संकेत प्राप्त होता है। देवताओं द्वारा दिये गए नल और दमयन्ती के वरदान भी भावी घटनाओं के सूचक हैं। इन्द्र ने कहा कि वाराणसी के पास अस्सी के तट पर नल के रहने के लिए उनके नाम से अभिहितनगर (नलपुर) होगा। देवगण एवं सरस्वती ने दमयन्ती को यह वर दिया कि जो तुम्हारे पातिव्रत को नष्ट करने का प्रयास करेगा वह भस्म हो जायगा [नैषधचरित १४।७२] । भविष्य में नल द्वारा परित्यक्ता दमयन्ती जब एक व्याध द्वारा सपं से बचाई जाती है तब वह उसके रूप को देखकर मोहित हो जाता है और उसका पातिव्रत भंग करना चाहता ही है कि उसकी मृत्यु हो जाती है। नैषध काव्य में इस वरदान की संगति नहीं बैठती। विद्वानों की राय है कि निश्चित रूप से इस महाकाव्य की रचना २२ से अधिक सों में हुई होगी। १७ वें सर्ग में कलि का पदार्पण एवं उसकी यह प्रतिज्ञा कि वह निश्चित रूप से नल के राज्य एवं दमयन्ती को उससे पृथक् करायेगा ( १७६१३७) से ज्ञात होता है कि कवि ने नल की सम्पूर्ण कथा का वर्णन किया था क्योंकि इस प्रतिज्ञा की पूर्ति वर्तमान काव्य से नहीं होती। श्री मुनि जिनविजय ने हस्तलेखों की प्राचीन सूची में श्रीहर्ष के पौत्र कमलाकर द्वारा रचित एक विस्तृत भाष्य का विवरण दिया है जिसमें साठ हजार श्लोक थे। 'काव्यप्रकाश' के, टीकाकार अच्युताचार्य ने अपनी पुस्तक साहित्यकार की टीका में बतलाया है कि नैषध में सौ सगं थे। मंगलसूचक तथा
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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