SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिविक्रमभट्ट ] ( २०८ ) [ त्रिविक्रमभट्ट बुलवा लिया | त्रिविक्रम बड़ी चिन्ता में पड़े। शास्त्रार्थं का नाम सुनते ही उनका माथा ठनक गया । अन्ततः उन्होंने सरस्वती की स्तुति की - "मां भारती मुझ मूर्ख पर कृपा करो । आज यहाँ पर आये हुए इस महापण्डित से आप के भक्त का यश क्षीण न हो जाय । उसके साथ शास्त्रार्थ में मुझे विजयी बनाओ ।" पितृ-परम्परा से पूजित कुलदेवी सरस्वती ने उसे वर दिया, "जब तक तुम्हारे पिता लौट कर नहीं आते हैं तुम्हारे मुख में निवास करूंगी ।" वर की महिमा से राजसभा में अपने प्रतिद्वन्द्वी को पराजित कर राजा द्वारा बहुविध सम्मान पाकर त्रिविक्रम लौटा। घर आकर उसने सोचा कि पिता जी के आगमन-काल तक सरस्वती मेरे मुख में रहेगी। तब तक यश के लिए मैं कोई प्रबन्ध क्यों न लिख डालूँ । अतः उसने पुण्यश्लोक नल के चरित्र को गद्य-पद्य में लिखना शुरू किया । इस तरह सातवें उछ्वास की समाप्ति के दिन पिताजी का आगमन हो गया और सरस्वती उनके मुख से बाहर चली गई । इसलिए नलयम्पू ग्रन्थ अपूर्ण रह गया ।" उद्धृत । पर इस किंव चम्पू की भूमिका ( चौखम्भा संस्करण ) पृ० ११-१२ से दन्ती में अधिक सार नहीं है क्योंकि त्रिविक्रम भट्ट की होती हैं । अन्य रचनाएँ भी प्राप्त । दोनों की कथाओं कि त्रिविक्रमभट्ट ने लिए 'नलचम्पू' की रचना श्रीहर्षचरित 'नैषधचरित' से प्रभावित है एवं वर्णनों में आश्चर्यजनक साम्य देखकर अनुमान किया जाता है उक्त महाकाव्य से प्रेरणा ग्रहण की होगी । संस्कृत - साहित्य में इलेष - प्रयोग त्रिविक्रमभट्ट की अधिक प्रसिद्धि है। इनकी इलेष-योजना की विशेषता उसकी सरलता में है तथा उसमें सभंग पदों का आधिक्य है। छोटे-छोटे अनुष्टुप् छन्दों में सभंग पदों की योजना कर कवि ने अनुपम सौन्दर्य की सृष्टि की है अप्रगल्भाः पदन्यासे जननीरागहेतवः । सन्त्येके बहुलालापाः कवयो बालका इव ॥ १ । ६ पदों के प्रयोग में अनिपुण ( कविता के प्रति ) लोगों में वैराग्य उत्पन्न कर देने वाले तथा बहुत-सी असार बातों के कहने वाले कवि उन बच्चों की तरह हैं जो ( पृथ्वी पर ) पद ( पैर ) रखने में अनिपुण, माता के प्रेमोत्पादक ( जननी रागहेतु ), तथा बहुत-सी अव्यक्त बातों को कहते या बहुत लार पीते हैं । श्लेष प्रिय होने के कारण शाब्दीक्रीड़ा के प्रति इनका रुझान अधिक है, अतः कवि कथा के इतिवृत्त की परवा न कर इलेष-योजना एवं वर्णन बाहुल्य के द्वारा ही कवित्व का प्रदर्शन करता है । यह शाब्दीक्रीड़ा सर्वत्र दिखाई पड़ती है और भावात्मक स्थलों में भी कवि इसके प्रयोग से चुकता नहीं । इनका प्रकृति-चित्रण भी श्लेष के भार से बोझिल दिखाई पड़ता है । कवि ने मुख्यतः प्रकृति का वर्णन उद्दीपन के ही रूप में किया है। 'नलचम्पू' के टीकाकार चण्डपाल ने इनकी प्रशस्ति में निम्नोक्त श्लोक लिखा है शक्तिस्त्रिविक्रमस्येव दमयन्ती प्रबन्धेन जीयाल्लोकातिलंघिनी । सदाब लिमतोदिता ॥
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy