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________________ तन्त्र ] ( २०१ ) [ तन्त्र तन्त्र - भारतीयदर्शन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग । तन्त्र का व्याकरणसम्मत अर्थ है विस्तार, जो — विस्तारार्थंक तन् धातु से ओणादिक ष्ट्रन् के योग से निष्पन्न होता है - सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्, उणादि सूत्र ६०८ । जिस शास्त्र के द्वारा ज्ञान का विस्तार हो उसे तन्त्र शास्त्र कहते हैं—तन्यते विस्तार्यते ज्ञानमनेन इति तन्त्रम् । साधकों के प्राण की रक्षा करने के कारण भी इसे तन्त्र कहा जाता है, शैवसिद्धान्त के 'कामिकआगम' में तन्त्र की यही व्युत्पत्ति प्रस्तुत की गयी है तनोति विपुलानर्थान् तस्वमन्त्रसमन्वितान् । त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥ पर तन्त्र शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में भी होता है जिसके अनुसार शास्त्र, सिद्धान्त, अनुष्ठान, विज्ञान तथा विज्ञानविषयक ग्रन्थ इसके द्योतक हो जाते हैं । शंकराari ने 'सांख्य' के लिए तन्त्र शब्द का प्रयोग किया है । तन्त्र का दूसरा नाम 'आगम' है । "आगम वह शास्त्र है जिसके द्वारा भोग और मोक्ष के भारतीय दर्शन- -आ० बलदेव उपाध्याय पृ० ५४२, ७ वां संस्करण । उपाय बुद्धि में आते हैं ।" आगच्छन्ति बुद्धिमारोहन्ति यस्माद् अभ्युदयनिः श्रेयसोपायाः स आगमः । तत्ववैशारदी १।७, वाचस्पति मिश्र । निगम या वेद से अन्तर स्थापित करने के लिए ही तन्त्र का नाम 'आगम' रखा गया है । "कर्म, उपासना और ज्ञान के स्वरूप को निगम ( वेद ) बतलाता है । तथा इनके साधन-भूत उपायों को आगम सिखलाता है ।" भारतीयदर्शन पृ० ५४२ । तन्त्र की महिमा कलियुग के लिए अधिक है। चारों युगों में पूजा की पृथक्-पृथक् विधियाँ बतलायी गयी हैं—सत्ययुग में वैदिक उपासना, त्रेता में स्मार्तपूजा, द्वापर में पुराण एवं कलियुग में तान्त्रिकी उपासना | विना ह्यागममार्गेण कलौ नास्ति गति प्रिये । महानिर्वाण । कृते श्रुत्यक्त आचारस्त्रेतायां स्मृतिसम्भवः । द्वापरे तु पुराणोक्तः कलावागमसम्मतः ॥ कुलार्णव तन्त्र । महानिर्वाण में कहा गया है कि शंकर ने कलि के मानवों के कल्याण के लिये तन्त्र का उपदेश पावती को दिया था। अनेक ग्रन्थों में तन्त्र की विभिन्न परिभाषायें प्राप्त. होती हैं । वाराही ग्रन्थ में उन ग्रन्थों को तन्त्र कहा गया है जिनमें सृष्टि, प्रलय, देवताचंन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म ( शान्ति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण), साधन एवं ध्यान योग का वर्णन हो । सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां यथार्चनम् । साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥ षट्कर्मसाधनं चैव ध्यानयोगदचतुविधः । सप्तभिलक्षणैर्युक्तमागमं तद् विदुर्बुधाः ॥ तन्त्र ग्रन्थों की दूसरी परिभाषा यह है- "देवता के स्वरूप, गुण, कर्म आदि का जिनमें चिन्तन किया गया हो, तद्विषयक मन्त्रों का उद्धार किया गया हो, उन मन्त्रों को यज्ञ में संयोजित कर देवता का ध्यान तथा उपासना के पांच अंग-पटल, पद्धति, कवच, नामसहस्र और स्तोत्र – व्यवस्थित रूप से दिखलाये गये हों, उन ग्रन्थों को तन्त्र
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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