________________
अनर्घराघव ]
( १० )
[ अनघराघव
जटायु घायल हो जाता है और राम-लक्ष्मण विलाप करते हैं । वन में घूमते हुए राम, गुह की रक्षा करते हुए, कबन्ध का वध करते हैं । इसी बीच बाली मंच पर प्रवेश कर राम को युद्ध के लिए ललकारता है । बाली का वध होता है और नेपथ्य में सुग्रीव के राज्याभिषेक तथा सुग्रीव द्वारा सीता के अन्वेषण की सूचना प्राप्त होती है । षष्ठ अंक में सारण एवं शुक नामक दो गुप्तचरों के द्वारा रावण को सूचना मिलती है कि राम की सेना ने समुद्र पर सेतु बाँध दिया है । नेपथ्य में कुम्भकर्ण और मेघनाद के युद्ध करने की सूचना मिलती है । कवि ने दो विद्याधरों - रत्नचूड़ एवं हेमांगद - को रङ्गमंच पर प्रवेश कराकर उनके संवाद के रूप में राम-रावण के युद्ध का वर्णन कराया है । रावण का वध होता है । सप्तम अंक में राम-सीता का पुनर्मिलन होता है तथा राम, सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण आदि के साथ पुष्पक विमान पर चढ़कर अयोध्या लौट आते हैं । मार्ग में कवि ने सुमेरु, चन्द्रलोक आदि का सुन्दर वर्णन किया है । अयोध्या में वशिष्ठ एवं भरत द्वारा सबका स्वागत किया जाता है और रामराज्याभिषेक के बाद नाटक की समाप्ति हो जाती है । नाटकीय संविधान की दृष्टि से 'अनर्घराघव' सफल नाट्यकृति नहीं है । कवि ने अपनी भावात्मक प्रतिभा का प्रदर्शन कर इसमें नाटकीय असफलता प्रदर्शित की है। इसकी कथावस्तु में प्रवाह एवं गत्यात्मकता नहीं है तथा प्रत्येक अंक में अनावश्यक एवं बेमेल वर्णनों की भरमार है, जो दृश्यकात्र्य के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है । इन वर्णनों के कारण नाटकीय कथा के प्रवाह में अवरोध उपस्थित हो गया है । प्रथम अंक में विश्वामित्र तथा राजा दशरथ का संवाद अत्यधिक लंबा है और कवि ने एक दूसरे की प्रशंसा करने में अधिक शब्द व्यय किये हैं । इसी प्रकार द्वितीय अंक का प्रभात-वर्णन एवं चन्द्रोदय वर्णन तथा सप्तम अंक में विमान यात्रा का समावेश अनावश्यक है । इसमें अंक लम्बे हैं तथा किसी भी अंक में ५०-६० से कम पद्य नहीं हैं, यहाँ तक कि छठे और सातवें अंकों में पद्यों की संख्या ९४ एवं १५२ है । कवि ने भवभूति को परास्त करने की कामना से 'अनर्घराघव' की रचना की थी किन्तु उसे नाटक लिखने की कला का पूर्ण परिज्ञान नहीं था । यद्यपि उसका ध्यान पद लालित्य एवं पद-विन्यास पर अधिक था पर वह भवभूति की कला का स्पर्श भी न कर सका । मुरारि की नाटकीय प्रविधि अत्यधिक कमजोर है और वे संस्कृत के नौसिखुआ नाटककार के रूप में आते हैं । कथावस्तु, संवाद, शैली, अंकरचना, कार्यान्विति एवं व्यापारान्विति की उपयोगिता एवं विधान का इन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है । इन पर सर्वत्र पाण्डित्य की छाप दिखाई पड़ती है । इनमें पांच प्रकार के दोष देखे जा सकते हैं - १. इनके नाटक का कथानक निर्जीव है । २ वर्णनों तथा संवादों का अत्यधिक विस्तार है । ३. असंगठित एवं अतिदीर्घ अंकरचना का समावेश है । ४. सरस भावात्मकता का अभाव है । ५. कलात्मकता का प्रदर्शन है । संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास — गैरोला पृ० ६०४, द्वितीय संस्करण । भवभूति की भाँति इन्होंने भी अपने नाटक में प्रकृति का चित्रण किया है किन्तु इनका महत्त्व केवल अभिव्यक्तिगत सौन्दर्य के कारण है । कवि ने अतिशयोक्ति एवं वृत्त्यनुप्रास की छटा ही छहराई है । दृश्यन्ते मधुमत्तकोकिलवधू निर्धूतचूताङ्कुरप्राग्भा