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________________ जैन साहित्य] ( १९८ ) [जैन साहित्य है। अजीव की भी दो श्रेणियां हैं। एक ये हैं जिनकी आकृति नहीं होती; जैसे धर्म, अधर्म, देश, काल । दूसरे की आकृति होती है, वे हैं-पुद्गल पदार्थ या भौतिक पदार्थ । पुद्गल को विश्व का भौतिक आधार कहा जाता है तथा स्पर्श, स्वाद, गन्ध, वर्ण और शब्द का सम्बन्ध इसी से है। जैनियों की मान्यता है कि आत्मा एवं आकाश के अतिरिक्त सारी चीजें प्रकृति से उत्पन्न होती हैं। उनके अनुसार विश्व का निर्माण परमाणुओं से होता है तथा अणु का आदि, मध्य या अन्त कुछ नहीं होता । यह अत्यन्त सुक्ष्म, नित्य एवं निरपेक्ष सत्ता है तथा इसका निर्माण एवं विनाश नहीं होता। भौतिक पदार्थ अणुओं के परस्पर संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। ___ जैन आचार-दर्शन-बन्धन से मुक्ति ही जैनधर्म का प्रधान लक्ष्य है। शरीर धारण करने के कारण ही जीव को दुःख भोगना पड़ता है और बन्धन के दुःख का भोक्ता वही है। तीर्थंकरों ने जगत् के दुःख-निवारण को ही प्रधान समस्या माना है। दुःखों के समुदाय के कारण ही जीव का जीवन क्षुब्ध रहता है। अतः दुःखजनित क्षोभ से आत्मा को छुटकारा दिलाना ही जीवन का प्रधान लक्ष्य है। जैनशास्त्रों ने वासनाओं की दासता से मुक्ति पर अधिक बल दिया है। कर्म के कारण ही जीव को बन्धन में पड़ना पड़ता है और दासता का कारण भी कम ही है। कैवल्य या मोक्ष के प्रतिबन्धक चार प्रकार के कर्म होते हैं-मोहनीय, ज्ञानावरणीय, संवेदनीय एवं अन्तराय । इनमें मोहनीय सबसे बलवान है और इसके नष्ट हो जाने पर ही और कर्मों का नाश सम्भव है। मोक्ष-जैनधर्म में मोक्ष के तीन साधन हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् मान तथा सम्यक् चारित्र्य । दर्शन का अर्थ श्रद्धा है, अतः मोक्ष चाहने वाले साधक के लिए सम्यक् श्रद्धा आवश्यक है। तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों एवं मार्गों में श्रद्धा रखना मोक्षकामी साधक के लिए अत्यन्त आवश्यक है। सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् ज्ञान की चरितार्थता सम्यक् चारित्र्य में होती है। इन्हें ही जैनधर्म में 'त्रिरत्न' या रत्नत्रय की अभिधा प्रदान की गयी है । सम्यक् चरित्र के द्वारा ही जीव बन्धन-मुक्त होता है । जानी या श्रद्धा-सम्पन्न व्यक्ति के लिए पांच प्रकार के आचरण होते हैं-अहिंसा, उदारता, सत्यभाषण, सदाचरण, अस्तेय एवं वाणी, विचार तथा कर्म से पवित्रता और समस्त सांसारिक स्वार्थो का त्याग । अहिंसा का अभिप्राय केवल हिंसा के त्याग से ही न होकर समस्त प्राणियों एवं सृष्टि के प्रति तथा सहानुभूति का प्रदर्शन भी है। ईश्वर-जैनधर्म अनिश्वरवादी है। यह जगत् के सृजन एवं संहार के लिए ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करता । इसके अनुसार असंख्य जीवों तथा पदार्थों की प्रतिक्रिया के कारण ही विश्व का विकास होता है-'विद्यमान पदार्थों का नाश नहीं हो सकता और न ही असत् से सृष्टि का निर्माण सम्भव है। जन्म अथवा विनाश वस्तुओं के अपने गुणों एवं प्रकारों के कारण होता है।' भारतीयदर्शन-डॉ. राधाकृष्णन् पृ० ३०२ । इस धर्म में ईश्वर का बह रूप मान्य नहीं है. जिसके अनुसार वह 'कर्तुम् अकतुंम् अन्यथा कर्तुं समर्थः किसी वस्तु के करने, न करने अन्यथा कर देने में समर्थ होता है ।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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