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________________ चारायण] ( १७५ ) [चार्वाक दर्शन तो इसी युग में रचे गए हैं। इस शताब्दी तक आकर चम्पूकाव्यों ने नवीन विषयों एवं नवीन दृष्टिकोण का समावेश हुआ और यात्राप्रबन्धों तथा स्थानीय देवताओं का वर्णन कर इसके वयं विषय में नवीनता आयी और यह काव्य नवजीवन के समीप आ गया । . .. ___ आधारगन्य-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ० छविनाथ त्रिपाठी। चारायण-संस्कृत के प्राक्पाणिनि वैयाकरण । पं० युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय ३१०० वि० पू० है। ये वेद-व्याख्याता, वैयाकरण एवं साहित्यशास्त्री थे। 'लोगाक्षिगृह्यसूत्र' के व्याख्याता देवपाल (५१) की टीका में चारायण अपर नाम चौरायणि का एक सूत्र व्याख्या सहित उद्धृत है। इनका उल्लेख 'महाभाष्य (१।११७३ ) में पाणिनि तथा रौढि के साथ किया गया है। वात्स्यायन 'कामसूत्र' तथा कौटिल्यकृत 'अर्थशास्त्र (५२५) में भी किसी चारायण आचार्य के मत का उल्लेख है। चारायण को 'कृष्ण यजुर्वेद' की 'चारायणीयशाखा' का रचयिता भी माना जाता है जिसका 'चारायणीयमन्त्रार्षाध्याय' नामक अंश उपलब्ध है। इनके अन्य ग्रन्थ हैं 'चारायणीयशिक्षा' तथा 'चारायणीय संहिता'। इन्होंने साहित्यशास्त्र सम्बन्धी किसी ग्रन्थ की भी रचना की थी जिसका उल्लेख सागरनन्दी कृत 'नाटकलक्षणरत्नकोश' (पृ० १६) में है। आधारग्रन्थ-१. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास भाग १५० युधिष्ठिर मीमांसक २. इण्डियन ऐष्टीक्केरी (जुलाई १८७६ ई.)-डॉ० कीलहानं । चारुदत्त-यह महाकवि भास रचित उनका अन्तिम नाटक है। इसकी सहसा समाप्ति लेखक के असामयिक निधन का परिचायक है। इसके आरम्भ और अन्त के श्लोक नहीं मिलते। यह नाटक चार अंकों में विभक्त है। शुद्रक रचिक 'मृच्छकटिक' नामक प्रकरण का आधार यही नाटक है। इसकी कथा वही है जो 'मृच्छकटिक' की है । [ दे० मृच्छकटिक ] कवि ने दरिद्र चारुदत्त एवं वेश्या वसन्तसेना की प्रणय-कथा का इसमें वर्णन किया है। वे ही दोनों इसके नायक-नायिका हैं। शकार प्रतिनायक के रूप में चित्रित है । घनघोर वर्षा में वसन्तसेना का चारुदत्त के घर जाने के वर्णन में ही अचानक नाटक समाप्त हो जाता है। चार्वाक दर्शन-प्राचीन भारतीय जड़वादी या भौतिकवादी दर्शन जिसके अनुसार भूत ही एक मात्र तत्त्व है तथा मन-या चैतन्य की उत्पत्ति जड़ या भूत से ही होती है । इसका दूसरा नाम 'लोकायत' दर्शन भी है। अवैदिक या नास्तिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन सर्वाधिक प्राचीन तत्त्वज्ञान है। इसका प्रचलन किसी-न-किसी रूप में प्राचीन काल से ही है और वेदों, उपनिषदों, पुगणों, रामायण, महाभारत तथा दार्शनिक ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख किया गया है। इस पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता और न इसके समर्थकों का कोई सुसंगठित सम्प्रदाय ही दिखाई पड़ता है। भारतीय दर्शनों में इसके मत का खण्डन करते हुए जो विचार व्यक्त किये गए हैं उसी से ही इसका परिचय प्राप्त होता है।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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