SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३२) [काव्यशास्त्र वर्गीकरण एवं एक अलङ्कार का अन्य अलङ्कार के साथ अन्तर स्थापित करते हुए इसके प्रयोग की भी सीमा निर्धारित की। मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पयदीक्षित, पण्डितराज तथा विश्वेश्वर पण्डित की अलङ्कार-मीमांसा अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं वैज्ञानिक है। __अलङ्कारवादी आचार्यों में भामह ने ३८ (३९), दण्डी ने ३७ (२+३५), उदट मे ४१, छट ने ६८ एवं जयदेव ने १०० अलङ्कारों का वर्णन किया है। उगट एवं रुद्रट ने अलङ्कारों के वर्गीकरण का भी प्रयास किया है और क्रमशः ६ एवं ४ वर्ग किये हैं । रुद्रट का वर्गीकरण महत्त्वपूर्ण है-वास्तवमूलक, औपम्यमूलक, अतिशयमूलक एवं श्लेषमूलक । ध्वनिवादी आचार्यों ने अलङ्कार को काव्य का बाह्यशोभाधायक तत्त्व स्वीकार कर इन्हें 'अस्थिरधर्म' की संज्ञा दी और तभी से इनका महत्त्व गौण हो गया । इन आचार्यों ने अलवारकाव्य को अवर या अधम काव्य माना और अलङ्कार के बिना भी काव्य की कल्पना की। रुय्यक ने ८२ अलङ्कारों का वर्णन किया और उन्हें सात वर्गों में विभक्त किया-साधयंमूलक, विरोधमूलक, शृङ्खलामूलक, तकन्यायमूलक, वाक्यन्यायमूलक, लोकन्यायमूलक एवं गूढार्थप्रतीतिमूलक । मम्मट ने ६८, विश्वनाथ ने८६, पण्डितराज ने ७० तथा विश्वेश्वर ने ६२ अलङ्कारों का विवेचन किया है । रुद्रट ने अलङ्कारों की संख्या में वृद्धि की और रुय्यक, शोभाकरमित्र, जयदेव, अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज ने इसमें सम्यक् योग दिया किन्तु विश्वेश्वर पण्डित ने बढ़ाये गये सभी अलङ्कारों का खण्डन कर मम्मट द्वारा वर्णित अलङ्कारों में ही उन्हें गतार्थ कर अलङ्कार-संख्या का परिसीमन कर दिया। विश्वेश्वर का यह कार्य अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण एवं प्रौढ़ता का द्योतक है । अलङ्कारवादी आचार्य जयदेव ने अलङ्कारविहीन काव्य को उष्णतारहित बग्नि की भांति व्यथं मान कर काव्य में अलङ्कार की अनिवार्य सत्ता का उद्घोष किया था किन्तु परवर्ती आचार्यों ने इसे अमान्य ठहरा दिया। अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलङ्कृती। असी न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती ॥ अलङ्कार के सम्बन्ध में ध्वनिवादी आचार्यों की चाहे जो भी मान्यताएं रही हों किन्तु इसका जितना सूक्ष्म-विवेचन संस्कृत काव्यशास्त्र में हुआ उतना सम्भवतः किसी सिद्धान्त का नहीं हुआ। अलङ्कारों का गम्भीर पर्यवेक्षण ही उसकी महत्ता का परिचायक है। रीति-सम्प्रदाय-इस सम्प्रदाय के संस्थापक हैं आचार्य वामन । इन्होंने रीति को ही काव्य की आत्मा मानकर इसका महत्त्व प्रतिष्ठित किया है-'रीतिरात्माकाव्यस्य', काव्यालङ्कारसूत्र १।२।६ । वामन के अनुसार विशिष्ट पद-रचना ही रीति है और यह वैशिष्ट्य गुण के ही कारण आता है। अर्थात् रचना में माधुर्यादि गुणों के समावेश से ही विशिष्टता आती है-विशेषो गुणात्मा ११२७ । इस प्रकार इन्होंने गुण एवं रीति में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया है। इन्होंने अलङ्कार की अपेक्षा गुण की विशेष महत्ता सिद्ध की । वामन के अनुसार गुण काव्यशोभा का उत्पादक होता है और अलङ्कार केवल उसकी शोभा का अभिवर्द्धन करते हैं। इन्होंने रीतियों के तीन प्रकार मान कर उनका वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है। वे हैं-वैदर्भी, बीड़ी एवं पाञ्चाली ।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy