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________________ काव्यशास्त्र ] ( १३० ) [ काव्यशास्त्र की संख्या है जिनसे ज्ञात होता है कि ये श्लोक 'परम्पराप्रवाह' में रचित हुए थे । भरत ने स्वयं 'द्रुहिण' नामक आचार्य का उल्लेख किया है जिन्होंने नाट्यरसों का विवेचन किया था । सम्प्रति 'नाट्यशास्त्र' ही भारतीय काव्यशास्त्र का प्राचीनतम ग्रन्थ प्राप्त होता है और भरत को इस शास्त्र का आद्याचार्य माना जाता है । इनका समय ई० पू० ५०० से २०० वर्ष तक माना गया है। भरत ने नाटक के विवेचन में रस, अलंकार, गुण आदि का निरूपण किया था और काव्यशास्त्र को नाटक का अंग मान लिया था। पर, आगे चल कर इसका विकास स्वतन्त्रशास्त्र के रूप में हुआ जिसका श्रेय आ० भामह को है । संस्कृत काव्यशास्त्र की परम्परा भरत से लेकर विश्वेश्वर पण्डित तक अक्षुण्ण रही है और इसमें छह प्रसिद्ध सिद्धान्तों की स्थापना हुई है -रससम्प्रदाय, अलंकार सम्प्रदाय, रीतिसम्प्रदाय, ध्वनिसम्प्रदाय, वक्रोक्तिसम्प्रदाय एवं ओचित्पसम्प्रदाय । काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्यों में भरत, भामह, दण्डी, उन्नट, वामन, रुद्रट, आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, राजशेखर, धनजय, कुंतक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र, भोज, मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पयदीक्षित, पण्डितराज जगन्नाथ एवं विश्वेश्वर पण्डित हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा इस शास्त्र का रूप अत्यन्त प्रौढ़ एवं वैज्ञानिक बनाया है । [ इनका परिचय इसी कोश में इनके नामों में देखें ] संस्कृत काव्यशास्त्र की उत्पत्ति की कथा राजशेखर की 'काव्यमीमांसा' में दी गयी है जिसमें १७ व्यक्तियों द्वारा काव्यविद्या के विविध अंगों के निरूपण का उल्लेख हैसहस्रार इन्द्र ने कवि रहस्य का, उक्तिगर्भ ने उक्तिविषयक ग्रन्थ का, सुवर्णनाभ ने रीतिविषयक ग्रन्थ, प्रचेता ने अनुप्रासविषयक, यम ने यमक सम्बन्धी, चित्राङ्गद ने चित्रकाव्य का, शेष ने शब्दश्लेष, पुलस्त्य ने वास्तव या स्वभावोक्ति, औपनायक ने उपमा, पराशर ने अतिशयोक्ति, उतथ्य ने अर्थश्लेष, कुबेर ने उभयालङ्कार, कामदेव ने विनोदविषयक ग्रन्थ, भरत ने नाट्यशास्त्र, धिषण ने दोष, उपमन्यु ने गुण, कुचमार ने औपनिषदिक विषयों पर तथा नन्दिकेश्वर ने रससास्त्र का निर्माण किया था । इस विषय का उल्लेख अन्य किसी भी ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता, अतः इस आख्यायिका की प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है । इसमें अवश्य ही कुछ लेखकों के नाम आ गए हैं जिन्होंने काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों पर ग्रन्थलेखन किया था । रखसम्प्रदाय - संस्कृत काव्यशास्त्र का सर्वाधिक प्राचीन सिद्धान्त रससम्प्रदाय है । इस सम्प्रदाय के संस्थापक भरतमुनि हैं । 'नाट्यशास्त्र' में रस का अत्यन्त सूक्ष्म, वैज्ञानिक एवं व्यावहारिक विवेचत है तथा उसकी संख्या आठ मानी गयी है । भरत ने रस का स्रोत अथर्ववेद को माना है-रखानाथर्वणादपि १।१७ राजशेखर के कथनानुसार सर्वप्रथम नन्दिकेश्वर ने ब्रह्मा के आदेश से रसविषयक ग्रन्थ का प्रणयन किया था किन्तु सम्प्रति उनका ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता । अतः इस सिद्धान्त के आद्य संस्थापक भरत सिद्ध होते हैं । इन्होंने नाट्य से सम्बद्ध होने के कारण इसे 'नाट्यरस' के रूप में नित किया है और विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी के संयोग से रस की निष्पत्ति या उत्पति मानी है— विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । कालान्तर में अनेक आचायों ने 'नाट्यशास्त्र' की व्याख्या करते हुए इस सूत्र की अनेकधा व्याख्या उपस्थित
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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