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________________ कल्हण] ( १०४ ) [कल्हण ग्रहण कर अपने ग्रन्थ को पूर्ण बनाने का प्रयास किया था। वे काश्मीरक कवि बिल्हण रचित 'विक्रमांकदेवचरित' तथा बाणलिखित 'हर्षचरित अतिरिक्त 'रामायण' एवं 'महाभारत' से भी पूर्ण परिचित थे। कवि के रूप में कल्हण का व्यक्तित्व अत्यन्त प्रखर है, न्होंने अपने को इतिहासवेत्ता न मानकर कवि के रूप में ही प्रस्तुत किया है। यह जानकर कि सुकवि की वाणी अमृतरस को भी तिरस्कृत करने वाली होती है वे अपने को कवि क्यों नहीं कहते ? अमृत के पान करने से केवल पीने वाला ही अमर होता है, किन्तु सुकवि की वाणी कवि एवं वर्णित पात्रों, दोनों के ही शरीर को अमर कर देती है वन्द्यः कोऽपि सुधास्यन्दास्कन्दी स सुकवेर्गुणः । येनायाति यशःकाये स्थय स्वस्य परस्य च ॥१३ ऐतिहासिक शुद्धता एवं निष्पक्षता का व्रत लेने के कारण एवं साथ-ही-साथ एक काव्य की रचना में प्रवृत्त होने के लिए सचेष्ट रहने से कल्हण का काव्य अलंकृत शैली के महाकाव्यों से काफो दूर है। इनका व्यक्तित्व कवि और इतिहासकार के बीच सामंजस्य उपस्थित करने वाला है। इन्होंने समस्त साहित्यशास्त्रीय ज्ञान का परिचय प्राप्त कर उनका समावेश राजतरंगिणी में किया है तथा जहाँ कहीं अवसर प्राप्त होने पर परम्परागत अधीत ज्ञान का पूर्ण प्रदर्शन किया है। इनके उत्कृष्ट कवित्व ने ही काश्मीर के इतिहास को आकर्षक बना दिया है। इनकी कविता में काव्यशास्त्रीय गुणों का अत्यन्त संयत रूप से ही प्रयोग किया गया है। कथावस्तु के विस्तार एवं वयंविषय की विशदता के कारण ही इन्होंने अलंकारों एवं विचित्र प्रयोगों से अपने को दूर रखा है। राजतरंगिणी में इतिहास का प्राधान्य होने के कारण इसकी रचना वर्णनात्मक शैली में हुई है पर यत्र-तत्र कवि ने, आवश्यकतानुसार, वार्तालारात्मक एवं संभाषणात्मक शैली का भी आश्रय लिया है। कहीं-कहीं अवश्य ही इनमें शैलीगत दूल्हता दिखाई पड़ती है, पर ऐसे स्थल. अल्पमात्रा में हैं। राजतरंगिणी में शान्त रस को रसराज मानकर उसका वर्णन किया गया है। आलोक्य शारदा देवी यत्र सम्प्राप्यते क्षणान। तरङ्गिणी मधुमती वाणी च कविसेविता ॥ १।३७ क्षणभनिनि जन्तूनां स्फुरिते परिचिन्तिते । मूर्धाभिषेकः शान्तस्य रसस्यात्र विचार्यताम् ॥ १।२३ अलंकारों के प्रयोग में इन्होंने अनुपम कौशल प्रदर्शित किया है और नये-नये उपमानों का प्रयोग कर अपने अनुभव की विशालता का परिचय दिया है । अधिकांशतः उपमान प्रकृति क्षेत्रों से ही ग्रहण किये गए हैं। उदये संविभजे सभृत्यान् काराविनिर्गतान् । मधौ प्रफुः शाखीव भृगान् भूविवरोत्थितान् ॥ ७८९३ 'राजा हर्ष ने अभिषेक होने पर भृत्यों पर वैसे ही अनुग्रह किया, जैसे वसन्तऋतु में कुसुमित वृक्ष पृथ्वी के छिद्रों से निकले हुए भृङ्गों का। आधारग्रन्थ-१. संस्कृत साहित्य का इतिहास-कीथ (हिन्दी अनुवाद) २. हिस्ट्री बॉफ संस्कृत लिटरेचर दासगुप्त एवं है। ३. संस्कृत साहित्य का
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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