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आर्य रक्षित का जन्म आबू पर्वत के निकटवर्ती ग्राम दंताणी में वी.नि. की सतरहवीं शताब्दी में हुआ था। उनके पिता का नाम द्रोण और माता का नाम देदी था। गृहस्थ जीवन में उनका नाम गोदुह कुमार था। गोदुह कुमार ने बड़गच्छ परम्परा के जयसिंह सूरि से दीक्षा ली। दीक्षा के समय उनका नाम विजयचन्द्र रखा गया। आगमों का पारायण कर विजयचन्द्र एक विद्वान मुनि बने। उपाध्याय पद पर उनकी नियुक्ति हुई। संघ में उन्हें काफी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। परन्तु आगमज्ञ मुनि विजयचन्द्र को गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार रुचिकर नहीं था। उन्होंने समान विचारधारा के तीन अन्य मुनियों के साथ संघमुक्त होकर अन्यत्र विहार कर दिया। पावागिरि शिखर पर मन्दिर में उन्होंने मासोपवास की आराधना की। यशोधन नामक श्रेष्ठी का सम्यक् सहयोग प्राप्त कर उन्होंने क्रियोद्धार किया और अंचल गच्छ की स्थापना की। संघ ने उन्हें इस नवीन गच्छ का आचार्य मनोनीत किया और 'आर्य रक्षित सूरि' यह नया नाम प्रदान किया।
आर्य रक्षित सूरि ने दीप, फल, बीज आदि के स्थान पर तन्दुल पूजा की प्रतिष्ठा की। श्रावक श्राविकाओं के लिए वस्त्र के अंचल से षडावश्यक क्रियाओं को करने का विधान किया। संभवतः इसी नवविधान के कारण उनका गच्छ अंचलगच्छ कहलाया।
आर्य रक्षित आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन माने जाते हैं। आर्य रक्षित का अंचल गच्छ उनके अपने समय में ही पर्याप्त प्रसिद्धि पा गया था। मंदिरमार्गी परम्परा में आज भी यह एक महनीय गच्छ है।
लगभग 100 वर्ष की अवस्था में वि.सं. 1236 में आचार्य रक्षित का तिमिर नगर में स्वर्गवास हुआ। वे वी.नि. की 17वीं-18वीं सदी के एक प्रतिष्ठित आचार्य थे।
. -वीरवंश पट्टावली आर्यिका पाम्बब्बे ___ गंग नरेश बूतुग द्वितीय की बड़ी बहन, जिसने राजसी-समृद्धि का परित्याग करके जिनदीक्षा धारण की और अपने जीवन को तप और त्यागपूर्वक व्यतीत किया। उसने तीस वर्षों तक संयम का पालन कर समाधिमरण द्वारा सद्गति प्राप्त की।
ई. की दसवीं सदी उसका समय माना जाता है। आशाधर (कवि)
वि. की तेरहवीं सदी के एक जैन कवि। उत्कृष्ट काव्यकार होने के साथ ही आशाधर धर्म, दर्शन, साहित्य आदि के भी मनीषी विद्वान थे। उनके ग्रन्थ उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण हैं।
कविवर आशाधर जी का जन्म माण्डलगढ़ (मेवाड़) में हुआ था। मेवाड़ पर शहाबुद्दीन गौरी के आक्रमण से उत्पन्न अस्तव्यस्तता के कारण वे सपरिवार मालवा में चले गए और धारा नगरी में रहने लगे। आशाधर जी के पिता का नाम सल्लक्षण और माता का नाम श्रीरत्नी था। उनकी पत्नी का नाम सरस्वती और पुत्र का नाम छाहड़ था। वे बहोरवाल जाति के जैन श्रावक थे।
कविवर आशाधर ने धारानगरी में रहकर ही अध्ययन किया। उनके गुरु का नाम पंडित महावीर था।
कालान्तर में कविवर आशाधर नलकच्छपुर चले गए जहां नेमिचैत्यालय में 35 वर्ष रहकर उन्होंने साहित्य साधना की। उन्होंने कई उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की। उत्कृष्ट साहित्य साधना के कारण कविवर सामान्य व्यक्ति से लेकर नरेशों तक के सम्माननीय और पूज्य बने। उनके जीवन काल में नलकच्छपुर पर पांच राजाओं ने शासन किया। इन सभी ने आशाधर का विशेष सम्मान किया। जैन चरित्र कोश ...
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