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आर्द्रक स्वयं को बन्दी महसूस करने लगा । उसने सैनिकों का विश्वास जीतने का उपक्रम किया, जिसमें वह शीघ्र ही सफल भी हो गया। इसी का लाभ उठाकर एक दिन एक जहाज में चढ़कर आर्द्रक कुमार भारत पहुंच गया। संयम को जीने के लिए वह इतना आतुर था कि उसने भारत पहुंचते ही मुनि दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा लेते हुए देववाणी ने आर्द्रक को चेताया कि उसके भोगावलि कर्म अभी अशेष नहीं हुए हैं, अतः दीक्षा लेने में वह शीघ्रता न करे, पर उमंगित आर्द्रक ने देववाणी को अनसुना कर दिया ।
एक बार आर्द्रक मुनि बसन्तपुर नगर में आए। वहां उद्यान में ध्यानस्थ मुद्रा में खड़े हो गए। उधर कुछ बालाएं क्रीड़ा के लिए उद्यान में आईं। उन बालाओं में श्रीमती नामक एक रूप-शील सम्पन्न श्रेष्ठी पुत्री भी थी । बालाएं क्रीड़ामग्न बन गईं। क्रीड़ामग्न बालाएं स्तम्भों को पकड़-पकड़कर उन्हें अपना पति घोषित करने लगीं। अजाने से श्रीमती ने मुनि को स्पर्श कर उसे अपना पति घोषित कर दिया। पर वस्तुस्थिति जानकर वह स्तंभित हो गई। शीघ्र ही स्वयं को सहज करते हुए उसने संकल्प किया, चाहे जो भी हो, वह विवाह करेगी तो इस मुनि से करेगी, अन्यथा आजीवन अविवाहिता रहेगी। देवों ने रत्नराशि का वर्षण कर उसके संकल्प की सराहना की ।
उपसर्ग जानकर आर्द्रक मुनि अन्यत्र विहार कर गए। श्रीमती के पिता श्रेष्ठी उद्यान में आए। रत्नराशि और पुत्री को लेकर घर चले गए। श्रीमती ने माता-पिता से साग्रह निवेदन किया कि वह विवाह करेगी तो उन मुनि से ही करेगी। माता-पिता ने उसकी बात स्वीकार कर ली। पर मुनि को खोजा कहां जाए, यह यक्ष प्रश्न था । श्रीमती के पिता ने एक दानशाला खोलकर उसका प्रबंधन श्रीमती को इस विचार से सौंप दिया कि कभी तो वे मुनि इधर से भिक्षा आदि लेने आएंगे, जिन्हें श्रीमती ही पहचान सकती है।
बारह वर्ष पश्चात् श्रीमती की मनोकामना पूर्ण हुई। आर्द्रक मुनि संयोग से उधर आए तो श्रीमती उनके चरण पकड़ लिए और स्वयं को स्वीकार करने की मुनि से प्रार्थना करने लगी । श्रेष्ठी ने जाना तो वह
मुनि के पास पहुंचा। स्वयं नगर के राजा ने भी मुनि से प्रार्थना की कि वे श्रीमती को पत्नी रूप में स्वीकार कर लें। आखिर इस चहुंमुखी दबाव से आर्द्रक ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । वे गृहस्थ बनकर श्रीमती के साथ रहने लगे। कालक्रम से उन्हें एक पुत्र भी प्राप्त हुआ। पुत्र तुतलाकर बोलता तो आर्द्रक को बहुत मधुर लगता ।
यह सब था पर आर्द्रक के मन में अपने पतन पर पश्चात्ताप प्रत्येक पल बना रहता था । यह पश्चात्ताप एक दिन प्रबल बना तो उन्होंने पुनर्दीक्षा का संकल्प कर लिया। उन्होंने पत्नी श्रीमती को अपने संकल्प से अवगत करा दिया । बहुत मनाने पर भी आर्द्रक नहीं माने। श्रीमती उदास होकर एक कोने में बैठ गई । आर्द्रक विचारों में खोए हुए चारपाई पर लेटे थे। उसी क्षण बाहर से खेलकर पुत्र आया। माता को रुआंसी देखकर उसका कारण अपनी तोतली जबान से पूछने लगा। माता ने पूरी बात बता दी कि उसके पिता उन्हें छोड़कर मुनि बनने जा रहे हैं। सुनकर पुत्र ने कहा, देखता हूं पिता जी कैसे जाते हैं। मैं इन्हें बांध दूंगा । कहकर नन्हे-नन्हे हाथों से सूत के धागे से उसने आर्द्रक को बांध दिया । पुत्र की इस प्रतिक्रिया ने आर्द्रक को पुनः बांध लिया। उन्होंने सूत के अंटों को गिना तो उन्हें बारह पाया । आर्द्रक ने पुनः बारह वर्ष घर में रहने का विचार बना लिया ।
बारह वर्ष पश्चात् पुत्र योग्य बन गया । उसे गृहदायित्व देकर आर्द्रक कुमार पुनः मुनि बन गए । उधर वे पांच सौ सुभट आर्द्रक के भारत आ जाने के कारण राजदण्ड से बचने के लिए स्वयं भी भारत आ गए थे और पेट पालन के लिए चौर्यादि कार्यों में प्रवृत्त बन गए थे। एक बार सहसा उनकी भेंट आर्द्रक मुनि
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