________________
वह छिपकर बैठ गया। आरामशोभा आई तो उसने उसकी कलाई पकड़ ली। उसने आरामशोभा को पूरी बात का सत्य बताने के लिए विवश बना दिया। आरामशोभा ने स्पष्ट किया कि अगर वह वैसा करेगी तो उसका बाग और उसकी सारी विद्याएं नष्ट हो जाएंगी। राजा ने कहा, उसे न बाग चाहिए और न विद्याएं, उसे तो आरामशोभा चाहिए। राजा के अपने प्रति प्रेमभाव को इतना प्रकृष्ट पाकर आरामशोभा गद्गद हो गई। उसने अथान्त घटनाक्रम इस शर्त के साथ सुना दिया कि उसकी विमाता और बहन के अपराध क्षमा कर दिए जाएंगे। ___ आरामशोभा पुनः सुखपूर्वक राजा के साथ रहने लगी। कालक्रम से मलयसुन्दर युवा हुआ। उसे युवराज पद दिया गया। एक बार वीरभद्र नामक आचार्य पाटलिपुत्र पधारे। वे अतिशय ज्ञानी थे। राजा-रानी दर्शनार्थ गए। प्रवचन सुना। उसके बाद आरामशोभा ने अपने जीवन में आए विचित्र उतार-चढ़ावों का रहस्य आचार्य से जानना चाहा। आचार्यश्री ने उसका पूर्वभव उसे यथारूप सुनाया___ पूर्वजन्म में तुम चम्पापुरी के कुलधर सेठ की कुलानन्दा सेठानी की आठ पुत्रियों में सबसे छोटी पुत्री थी। तुम्हारे जन्मते ही सेठ श्रीहीन बन गया। तुम्हें निर्भागा नाम से पुकारा गया। यौवन में तुम्हारा विवाह एक निर्धन वणिक-पुत्र नन्दन से किया गया, जो तुम्हें अवन्ती नगरी के चैत्य में सोती हुई छोड़कर भाग गया। अवन्ती निवासी श्रमणोपासक मणिभद्र के यहां तुम्हें शरण मिली। उसने तुम्हें अपनी पुत्री मान लिया। वहीं से धर्मसंस्कार तुम्हें प्राप्त हुए। तुम श्राविका का जीवन जीने लगी। किसी समय मणिभद्र का उद्यान दैवयोग से उजड़ गया। तुमने अपने शील के प्रभाव से उद्यान को पुनः हरा-भरा बना दिया।
__ आचार्य ने कहा, पूर्वभव में प्रारंभिक जीवन में तुमने धर्मध्यान नहीं किया, फलतः इस जीवन में तुम यौवन द्वार तक पहुंचने से पूर्व निर्धन और दुखी बनी रही। पूर्वजन्म में तुमने यौवन में प्रभूत रूप से धर्मध्यान किया, फलस्वरूप यहां तुम्हें राजसी सुख प्राप्त हुए। पूर्वजन्म का मणिभद्र श्रमणोपासक ही नागदेव बना है जिसने तुम्हें उसके बाग को हरा करने के फल रूप में दिव्य बाग प्रदान किया।
पूर्वभव सुनकर आरामशोभा को धर्म के वास्तविक प्रभाव का ज्ञान हुआ। उसने दीक्षित होने का संकल्प कर लिया। राजा ने भी उसका अनुगमन किया। मलयसुन्दर को राज्य सौंपकर राजा और रानी ने दीक्षा धारण कर ली। संयम पाल कर दोनों स्वर्ग में गए। जन्मान्तर में पुनः संयमाराधना करके मोक्ष प्राप्त करेंगे।
-वर्धमान देशना1 आरोग्य विप्र
उज्जयिनी नगरी के ब्राह्मण देवदत्त का पुत्र। उसकी माता का नाम नन्दा था। वह जन्म से ही रोगी था। पिता ने अनेक वैद्यों से उसके उपचार कराए, पर वह स्वस्थ नहीं हुआ। देवदत्त रोगी पुत्र से ऐसा संत्रस्त हुआ कि उसने उसका उपचार बन्द कर दिया और भावना भाने लगा कि वह मर ही जाए तो शुभ है। पुत्र का कोई नाम भी नहीं रखा गया। माता-पिता उसे 'रोग' नाम से ही पुकारते।।
माता नन्दा अपने भाग्य को कोसती रहती और यथासंभव पुत्र की देखभाल करती। पुत्र दस वर्ष का हो गया, पर रोग के कारण वह इतना दुर्बल था कि न बैठ सकता था और न ही खड़ा हो सकता था। एक बार नगर के बाहर उद्यान में एक मुनि पधारे। नन्दा अपने पुत्र को मुनि के पास ले गई और मुनि से पुत्र की स्थिति कही। मुनि ने फरमाया, बहन! मनुष्य कृत्-कर्मों का ही उपभोग करता है। तुम्हारे पुत्र ने पूर्वजन्म में अभक्ष्य भक्षण कर दुःसह कर्मों का बन्ध किया है। उसका उपचार यही है कि वह अभक्ष्य भक्षण का मन-वचन और काय से परित्याग करे तथा समता भाव से रोग के परीषह को सहन करे। ... जैन चरित्र कोश ...
..51
...