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नीचे प्रायः सभी स्थानकवासी सम्प्रदाय एकत्रित हो गईं। उस अवसर पर सभी ने एकमत से आपको प्रथम पट्टधर आचार्य सम्राट् के रूप में चुना। आपके सुविशाल व्यक्तित्व को प्रमाणित करने के लिए यही एक घटना अपने आप में पर्याप्त है।
आपका समग्र जीवन महान गुणों से पूर्ण था। आप की क्षमा अपूर्व थी। सहनशीलता बेमिसाल थी। अन्तिम अवस्था में कैंसर जैसे दुःसाध्य रोग के उपस्थित हो जाने पर भी आपकी शांति दर्शनीय थी।
वि.सं. 2018 – (सन् 1961) माघ वदी नवमी के दिन संलेखना सहित आपने स्वर्गारोहण किया।
वर्तमान में पंजाब में आपके शिष्यों, प्रशिष्यों, शिष्यानुशिष्यों की संख्या सर्वाधिक है। वर्तमान में आपके ही पौत्र शिष्य ध्यान योगी श्री शिव मुनि जी म. श्री वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के चतुर्थ पट्टधर के रूप में शासनोन्नति कर रहे हैं। आदिनाथ
भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर थे। प्रथम तीर्थंकर होने के कारण ही वे लोक में 'आदिनाथ' नाम से भी सुख्यात हुए। (विशेष परिचय के लिए-देखिए-ऋषभदेव तीर्थंकर)। आदीश्वर
प्रभु ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर एवं ईश्वर रूप विराट व्यक्तित्व के स्वामी होने के कारण आदीश्वर कहा जाता है। आनंदघन
भक्तिकाल के एक जैन मुनि। आनंदघन आध्यात्मिक साधना में सदैव तल्लीन रहते थे। वे एक कविहृदय संत थे। उनकी कविताएं अरिहंत देवों के प्रति समर्पित थीं। कहते हैं कि अरिहंत भक्ति में लीन आनंदघन ने एक बार एक ही स्थान पर बैठे हुए तेईस तीर्थंकरों की स्तुति का गान किया। उस समय आनंदघन की आंखें बन्द थीं और हृदय के तार अरिहंत प्रभु के चरणों से जुड़े हुए थे। वहां बैठे एक व्यक्ति ने आनंदघन के मुख से निकले हुए स्तुति-गानों को कलमबद्ध कर लिया। सहसा आनंदघन ने आंखें खोली और उस व्यक्ति को लेखनरत देखा। उसी क्षण उन्होंने स्तुति बंद कर दी और उस स्थान से उठकर अन्यत्र चले गए।
वस्तुतः लोकैषणा से आनंदघन कोसों दूर थे। उनकी कविता प्रदर्शन का नहीं, आत्मानन्द का हेतु होती थीं। यही कारण है कि उनकी कविताओं/स्तुतियों में भक्ति की आत्मा का दर्शन होता है।
लोकैषणा से दूर रहने वाले आनंदघन के प्रति उस युग का जनमानस अतिशय श्रद्धा से पूर्ण था। सामान्य जन से लेकर सम्राटों तक के हृदय में आनंदघन के प्रति श्रद्धा थी। परन्तु इन सबसे विमुख आनंदघन विशुद्ध संयमाराधना और प्रभु भक्ति में तल्लीन बने रहते थे। उनके जीवन से जुड़े कई चमत्कारिक कथा प्रसंग आज भी लोक में सुने-सुनाए और पढ़े-लिखे जाते हैं। (क) आनन्द (बलदेव) । छठे बलदेव और पुरुषपुण्डरीक वासुदेव के बड़े भाई। ये दोनों एक पिता तथा दो माताओं के पुत्र थे। चक्रपुर नरेश महाशिर इनके पिता और उनकी रानियां वैजयंती तथा लक्ष्मीवती क्रमशः इनकी माताएं थीं। इन दोनों भाइयों का पारस्परिक प्रेम राम और लक्ष्मण के समान था। दोनों ने मिलकर तत्कालीन प्रतिवासुदेव बलि के सुदृढ़ साम्राज्य का पतन कर तीन खण्ड पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। - जैन चरित्र कोश ...
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