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स्वकथ्य
कथा / कहानी / चरित्र का पठन / श्रवण एक सरस विषय रहा है । अत्यंत प्राचीन काल ही कथा - कहानियां मानव को सरस रूप में शिक्षा और संदेश देती रही हैं। छोटे से शिशु से लेकर वृद्ध तक में कथा के प्रति रुचि होती है। इसका कारण है कि कथा एक दर्पण के समान होती है। कथा का पाठक अथवा श्रोता कथा में वर्णित चरित्र के गुण-दोषों और उनके प्रभावों को हृदयंगम कर आत्मदर्शन द्वारा आत्मपरिष्कार कर सकता है। कथा की यह विशेषता होती है कि वह पाठक/श्रोता को आदेश - उपदेश न देकर उसके समक्ष आत्मचिंतन और मनोमंथन का विशाल अंतरिक्ष प्रस्तुत करती है। कथा का यही कमनीय पक्ष सहस्राब्दियों से मानव मन को आन्दोलित करता रहा है। अन्य की न कह कर अपने ही जीवन से जुड़ी बात कहूं, अनन्त पुण्यों से प्राप्त होने वाला संयम रूपी रत्न मुझे कथा के माध्यम से ही प्राप्त हुआ। शैशवावस्था से ही नई-नई कथा सुनने की सघन रुचि मेरे अन्तर्मन में थी। कथा श्रवण की मेरी रुचि ही मुझे गुरुदेव योगिराज की व्याख्यान सभा तक खींच ले गई। गुरुदेव योगिराज एक सुमधुर कथाकार थे। उनकी कथाओं के आकर्षण से मेरा मन बंध गया। फिर राग अनुराग के पथों से यात्रा करते विराग का द्वार जीवन में उद्घाटित हुआ।
आगम-आगमेतर साहित्य का अध्ययन करते हुए पाता हूं कि असंख्य भव्य जीवों के लिए कथा महाजीवन का द्वार बनी है। कथा का यही पक्ष प्रारंभ से ही मुझे उमंगित, तरंगित और उत्साहित करता रहा है। परिणामस्वरूप कई कथा संकलन मैंने प्रस्तुत किए। इनमें कई पुस्तकों का प्रणयन बाल - पाठकों को लक्ष्य में रख कर किया तो 'गुरुदेव योगिराज की कहानियां' आदि कथा ग्रन्थों का लेखन प्रौढ़ कथा - पाठकों को लक्ष्य में रख कर किया गया।
मेरे द्वारा प्रस्तुत कथा-पुस्तकों से श्रद्धेय गुरुदेव मुनि श्री रामकृष्ण जी प्रसन्न तो थे पर सन्तुष्ट न थे। वे चाहते थे कि संक्षेप शैली में प्रामाणिक रूप में ऐतिहासिक व पौराणिक कथाओं का एक ऐसा कोश तैयार किया जाए जिससे पाठक शब्दकोश की भांति जिस कथा को चाहें उसे तत्क्षण पढ़ सकें। श्रद्धेय गुरुदेव के इस भावादेश को लक्ष्य बनाकर मैंने इस दिशा में कार्य प्रारंभ किया। निःसंदेह यह एक श्रम - साध्य कार्य था, पर गुरु महाराज की कृपा से यह सरलतापूर्वक मैंने पूर्ण किया।
| स्वकथ्य । ●
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• जैन चरित्र कोश ॥●