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अरणक को पुनः पुनः चेतावनी दी। अन्त में देव ने जहाज को समुद्र से उठा लिया और आकाश में ले गया। साथी व्यापारी त्राहि-त्राहि करने लगे। पर अरणक के एक रोम में भी भय उत्पन्न नहीं हुआ।
अरणक की दृढ़धर्मिता देखकर देव दंग रह गया। उसने जहाज को यथास्थान स्थापित कर दिया। अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर उसने अरणक की दृढ़धर्मिता की स्तुति की और उसे दिव्य कुण्डल युगल देकर अपने स्थान पर चला गया।
धर्म सम्पन्न जीवन यापन कर अरणक उत्तम गति का अधिकारी बना। -ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र अरणिक मुनि
तगरा नगरी के दत्त श्रेष्ठी के पुत्र और माता भद्रा के आत्मज। किसी समय मित्राचार्य नामक आचार्य का धर्मोपदेश सुनकर दत्त, भद्रा और अरणिक, तीनों ही विरक्त हो गए और तीनों ने ही जिन-दीक्षा धारण कर ली। ___अरणिक अत्यन्त सुकुमार था। पिता दत्त मुनि उसका पूरा ध्यान रखते। स्वयं गोचरी लाते। साध्वाचार के अन्य कार्य भी स्वयं पूर्ण करते। परिणाम यह हुआ कि संयम-पथ पर बढ़कर भी अरणिक सुकुमार ही बना रहा। कष्ट क्या होता है इस बात से वह अपरिचित ही रह गया।
दत्त मुनि काल-धर्म को प्राप्त हो गए। भिक्षादि का दायित्व अरणिक पर आ पड़ा। वह भिक्षा के लिए चला। सूर्य प्रचण्ड ताप बरसा रहा था। नीचे जमीन जल रही थी और ऊपर आसमान सुलग रहा था। अरणिक की देह झुलस गई। एक विशाल भवन की पौड़ियों पर बैठकर वह विश्राम करने लगा।
उस भवन की स्वामिनी पति-विरह से व्यथित एक महिला थी। युवा मुनि को देखकर उसका मन चंचल बन गया। दासी भेजकर उसने मुनि को ऊपर बुला लिया। मधुर वार्ता और हावों-भावों से उसने मुनि को अपने वश में कर लिया। अरणिक को वहां बड़ा सुख मिला।
उधर साध्वी भद्रा मुनि संघ में अपने पुत्र को न पाकर विचलित हो उठी। पुत्र को खोजने के लिए वह गली-गली में भटकने लगी। उसके मुख से एक ही पुकार प्रकट हो रही थी-'अरणिक' । तीन दिनों तक पागलों की तरह घूमते हुए संयोग से वह उसी भवन के पास आ गई। अरणिक के कानों में मातृ-पुकार पड़ी। वह दौड़कर नीचे आया। मां की ममता और दशा देखकर उसे अपने आप से बड़ी ग्लानि हुई। उसने मां के चरण छू कर प्रतिज्ञा की कि वह सदा के लिए सुकुमारता को नष्ट कर देगा। अरणिक पुनः दीक्षित हो गया। वह प्रतिदिन सूर्य की आतापना लेने लगा। उसमें कष्ट-सहिष्णुता की शक्ति का विकास हो गया और उसी भव मे केवलज्ञान प्राप्त कर उसने मुक्ति प्राप्त की।
-आवश्यक कथा अरनाथ (तीर्थंकर) ___ अवसर्पिणी काल के अठारहवें तीर्थंकर और षटखण्डजयी चक्रवर्ती। उन्होंने अपने जीवन में पहले चक्रवर्ती बनकर जगत का सर्वोच्च शिखर चूमा, बाद में दीक्षा लेकर तीर्थंकर बने और आध्यात्मिक जगत के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित हुए।
__ अरनाथ हस्तिनापुर नरेश सुदर्शन और उनकी रानी महादेवी के आत्मज थे। महादेवी ने चौदह महान स्वप्नों के अतिरिक्त रलमयी छह आरों वाला एक चक्र भी स्वप्न में देखा था। फलतः उन्होंने अपने पुत्र का नाम अरनाथ रखा। यौवनावस्था में अरनाथ ने षटखण्डों को साधकर चक्रवर्ती पद पाया। सुदीर्घ काल तक उन्होंने न्याय और नीतिपूर्वक शासन किया। बाद में प्रव्रजित बनकर केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर हुए।
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