________________
उक्त व्यवसाय के अतिरिक्त अन्य कोई व्यवसाय नहीं जानता है और उस व्यवसाय को छोड़ देगा तो परिवार सहित भूख से मर जाएगा। मुनि ने कहा, तुम उक्त हिंसामयी वयवसाय का समग्ररूपेण परित्याग नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर ही सकते हो कि तुम्हारे जाल में फंसने वाली प्रथम मछली को तुम जीवन दान दे दो। हरिबल ने कहा, इतना मैं अवश्य कर सकता हूँ। मुनि ने उसके लिए हरिबल को नियम दे दिया।
हरिबल ने समुद्र में जाल फैंका। जाल को खींचा और पाया कि एक बड़ा मत्स्य जाल में फंसा है। अपने नियम के अनुसार मत्स्य के गले में एक कौड़ी बांधकर उसने उसे पुनः सागर में छोड़ दिया। तब उसने दूसरी बार जाल फैंका। संयोग से वही मत्स्य इस बार भी जाल में फंसा। उस मत्स्य को हरिबल ने पुनः पानी में छोड़ दिया तथा फिर से जाल फैलाया। हरिबल ने दसों बार जाल फैलाया और प्रत्येक बार वही मत्स्य जाल में उलझता रहा। नियम के पालन के लिए हरिबल पुनः-पुनः उस मत्स्य को जल में छोड़ता रहा। संध्या को रिक्त हाथों से हरिबल लौटने लगा तो समुद्र का अधिष्ठायक देव हरिबल के समक्ष उपस्थित हुआ और बोला, मैं तुम्हारी नियम-दृढ़ता से प्रसन्न हूँ। पुनः-पुनः तुम्हारे जाल में आने वाला मत्स्य मैं ही था और यह मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए किया था। परीक्षा में तुम सफल हुए। मैं तम्हें इच्छित वरदान देना चाहता हूँ ,जो चाहो मांग लो। हरिबल ने कुछ सोचते हुए कहा, देव! मैं जब भी संकट से घिरूं आप मेरी रक्षा करना। तथाऽस्तु कहकर देव अन्तर्धान हो गया।
रिक्त हाथ घर लौटने और पत्नी के क्लेश से बचने के लिए हरिबल मार्ग में एक देवालय के कोने में ही लेटकर रात्रि व्यतीत करने लगा।
उधर राजकुमारी वसंतश्री हरिबल नामक एक विदेशी युवा व्यापारी पर मुग्ध थी और उन दोनों ने रात्रि में उसी देवालय में मिलने और वहीं से रात्रि में ही देशान्तर भाग जाने का निश्चय किया था। अन्धेरी रात्रि में बहुमूल्य हीरे-जवाहरात की मंजूषा और रथ लेकर राजकुमारी मंदिर में पहुंची। परन्तु किसी कारण वश उसका प्रेमी हरिबल वहां नहीं पहुंच पाया। युवा धीवर हरिबल को ही अपना प्रेमी मानकर राजकुमारी उसे रथ में बैठाकर देशान्तर के लिए चल दी। प्रभात होने पर रहस्य स्पष्ट हुआ। आखिर राजकुमारी ने उसे ही अपना वर मानकर उससे विवाह कर लिया और दोनों विशालानगरी में एक भव्य भवन खरीद कर सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगे। इस सुखमय जीवन का कारण हरिबल ने उस नियम को ही माना जो संत ने उसे दिया था। हरिबल विशाला नगरी में रहकर दीन-दुखियों की सहायता करने लगा। शीघ्र ही वह नगर निवासियों की आंखों का तारा बन गया। नगर नरेश मदनदेव से भी उसके मैत्री-सम्बन्ध स्थापित हो गए। किसी समय राजा ने हरिबल को सपत्नीक भोजन पर आमंत्रित किया। वसन्तश्री का रूप राजा की नजरों में समा गया। उसने मंत्री के साथ मिलकर हरिबल को मार्ग से हटाने की योजना बनाई। मन्त्री अत्यन्त कुटिल था और उसने ऐसी कुटिल योजना तैयार की जिसमें हरिबल के बचने की उम्मीद न थी। योजनानुसार राजा ने अपनी पुत्री के स्वयंवर की घोषणा की और हरिबल को आदेश दिया कि वह लंका जाकर महाराज विभीषण को स्वयंवर में आने का निमंत्रण देकर आए। स्पष्ट था कि लंकागमन के लिए समुद्र को तैरना था और समुद्र को तैरने का स्पष्ट अर्थ था समुद्र में डूब मरना। परन्तु हरिबल ने इस चुनौति-पूर्ण कार्य को स्वीकार किया।
समुद्र के अधिष्ठायक देव की सहायता से हरिबल लंका पहुंच गया। वहां पर उसने कुसुमश्री नामक राजमाली पुष्पबटुक की पुत्री से विवाह किया। विभीषण की खड़गहास तलवार कुसुमश्री से पाकर हरिबल प्रसन्न हुआ और कुसुमश्री के साथ विशालानगरी के लिए चल दिया। ... जैन चरित्र कोश ...
-- 715 ...