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हरजसराय जी की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। परन्तु वे निर्धनता में भी आनन्दित रहते थे। एक बार एक संत भिक्षा के लिए उनके घर पधारे। घर की स्थिति देखकर संत करुणार्द्र बन गए। उन्होंने एक मंत्र जो पत्रखण्ड पर अंकित था हरजसराय जी की ओर बढ़ाते हुए कहा, श्रावक जी! इस मंत्रांकित पत्र को अपनी गद्दी के सिरहाने स्थापित कर लीजिए। इसके अचूक प्रभाव से आपको प्रतिदिन इच्छित धन की प्राप्ति हो जाया करेगी।
हरजसराय जी ने मुनि श्री से मंत्र स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा, महाराज! मेरी आर्थिक स्थिति मेरे पूर्वोपार्जित कर्मों के अनुसार है। अपने तुच्छ भौतिक लाभ के लिए मैं आपके संयम को दांव पर नहीं लगाऊंगा।
कर्मसिद्धांत और संयम के प्रति ऐसा विशुद्ध दृष्टिकोण था श्रावक जी का। श्रीयुत हरजसराय जी का एक-एक पद काव्य की रसमयी आत्मा से पगा है। 'साधु गुणमाला' में साधु के इन्द्रियजय का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए उन्होंने गाया था
लोभ के कारण जाल फंसे, खग मीन मरे कपि कुंजर रोवे। चोर सहे दुख बन्ध वधादिक, लोभ सों मानव किंकर होवे।। लोभ विनाश करे शिव मारग, नीच गती गत नीच मुढ़ोवे। लोभ निवार संतोष गहें ऋषि, ता गुणमाल सुसेवक पोवे।।
-साधु गुणमाला पद 41 कविवर का प्रामाणिक इतिवृत्त अनुपलब्ध है। साधु गुणमाला के अंतिम पद में कविवर का समय संकेत उपलब्ध होता है। पद निम्नोक्त है
अठ दशंत वरषे चौंसठे चेत मासे, शशि मृग सित पक्षे पंचमी पाप नासे।
रच मुनि-गुण माला मोद पाया कसूरे, हरजस गुण गाया नाथ जी आस पूरे।। स्पष्ट है कि कसूर निवासी श्री हरजसराय जी ने वि.सं. 1864 में चैत्र मास के मृगशिरा नक्षत्र में 'साधु गुणमाला' नामक स्तवन की रचना को पूर्ण किया। हरिकेशी मुनि
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार चाण्डाल कुलोत्पन्न एक मुनि।
हरिकेशी बल नामक चाण्डाल के पुत्र थे। उनकी माता का नाम गांधारी था। बल की एक अन्य पत्नी का नाम गौरी था। हरिकेशी जन्म से ही कुरूप और श्यामवर्णी थे। स्वभाव से भी रूक्ष और रौद्र थे। किसी समय जब चाण्डाल बस्ती में सभी लोग साथ मिलकर आमोद-प्रमोद और क्रीड़ा कर रहे थे तब हरिकेशी अकेला एक कोने में खड़ा यह सब देख रहा था। बच्चे उसे अपने खेल में सम्मिलित नहीं करते थे। सब जानते थे कि वह चण्ड प्रकृति का है। उसी समय वहां एक सर्प निकल आया। बूढ़े-बच्चे और जवानों ने उस सर्प को तत्क्षण विषैला-जन्तु कहते हुए मार दिया। कुछ देर बार एक निर्विष दुमुंही निकली जिसे किसी ने कुछ न कहा। इस घटना से हरिकेशी को यह बोध मिला कि विषैला मार दिया जाता है, निर्विष सुरक्षित रहता है। मैं अपनी जिह्वा के विषैले होने से ही तिरस्कृत जीवन जी रहा हूँ। इस बोध को लेकर हरिकेशी संन्यस्त हो गए और उग्र तप करने लगे। एक यक्ष उनकी सेवा में रहने लगा। ... जैन चरित्र कोश ...
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