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(क) सुलस
अमरपुर नगर के नगर सेठ वृषभदत्त का पुत्र । बाल्यकाल से ही सुलस कुमार जैन मुनियों के संपर्क में रहा और जैन धर्म के प्रति अनन्य आस्था उसके हृदय में साकार बन गई। उसने श्रावक के बारह व्रतों में से ग्यारह व्रतों को धारण किया। वणिक पुत्र होने से परिग्रह-परिमाण का व्रत उसने नहीं लिया। उसके पिता के पास अब्जों की संपत्ति थी, परन्तु संपत्ति में सुलस को कतई आकर्षण नहीं था। सामायिक, संवर, पौषध आदि की आराधना में वह संलग्न बना रहता और स्वाध्याय से अपने सम्यक्त्व को शुद्ध और परिशुद्ध बनाता रहता था। क्रमशः वह युवा हुआ। यौवनावस्था में भी कामाकर्षण उसे स्पर्श नहीं कर पाया। सेठ ने एक सम्मानित और समृद्ध श्रेष्ठी की जिनधर्मानुरागिनी सुपुत्री सुभद्रा से सुलस का विवाह कर दिया। पर सुलस आत्म-साधना में इतनी सघनता से तल्लीन था कि उसे यह भी अनुभव नहीं हआ कि उसका विवाह हो गया है। पौषधशाला में स्वाध्याय और सामायिक करते हुए ही उसके अहर्निश अतीत बनते थे। उसके विवाह को कई मास बीत गए पर उसने पत्नी का मुखदर्शन तक नहीं किया।
सुलस के माता-पिता-वृषभदत्त और जिनदेवी पुत्र की इस वैराग्यशीलता से परेशान बन गए। वे चाहते थे कि उनका पुत्र अपनी पत्नी के साथ हंस-खेल कर समय बिताए और थोड़ा समय धर्मध्यान करे। परन्तु सुलस तो पूरे समय ही धर्माराधना में जुटा रहता था। कई बार माता-पिता ने पुत्र को उसकी पत्नी के प्रति उसके दायित्व बोध का स्मरण दिलाया, पर सलस के मन में संसार के प्रति वे अनराग नहीं जगा पाए। आखिर गहन-गंभीर विचार विमर्श के पश्चात् माता-पिता ने यह निर्णय किया कि सुलस की संगत को रूपान्तरित किया जाए, उसे ऐसे लोगों के संपर्क में रखा जाए जो उसके भीतर संसार का आकर्षण जगा सकें। योजनानुसार सेठ वृषभदत्त ने कुछ मद्यपों और जुआरियों को अपने पुत्र से मित्रता करने के लिए आकर्षित किया। कुछ मद्यप और जुआरी अहर्निश सुलस के आस-पास मंडराने लगे। शनैः-शनैः सुलस को मदिरा और जुए का शौक लगने लगा। एक दिन उसके मित्र उसे गणिका कामपताका के महल पर ले गए। कामपताका रूपवान और चतुर थी। उसने नगरसेठ के पुत्र सुलस पर ऐसा जादू किया कि सुलस सब कुछ भूल गया। उसे जो स्मरण रहा, वह थी कामपताका। वृषभदत्त के घर से धन की नदी बहकर गणिका के घर पर गिरने लगी। दिन, महीने और वर्ष अतीत हो गए। सेठ वृषभदत्त ने अनेक उपाय किए अपने पुत्र को घर बुलाने के, पर उसे सफलता नहीं मिली। सुभद्रा पति की प्रतीक्षा करती रही। सोलह वर्षों तक सुलस ने गणिका के महल से बाहर कदम नहीं धरा । इस अवधि में सुलस के घर का समस्त धन तो गणिका के घर पहुंचा ही, साथ ही उसके माता-पिता भी चल बसे।
इस प्रलम्ब अवधि में गणिका कामपताका भी सुलस से हृदय से प्रेम करने लगी थी। धन का आगमन बन्द हो जाने पर भी वह सुलस को अपने से विलग नहीं करना चाहती थी। पर गणिका की वृद्धा बूआ को निर्धन सुलस बोझ दिखाई देने लगा। एक दिन कामपताका की अनुपस्थिति में उसकी वृद्धा बूआ ने सुलस को घर से निकाल दिया।
सोलह वर्षों के पश्चात् सुलस जैसे निद्रा से जगा। उसे ज्ञात हुआ कि उसके माता-पिता का निधन हो चुका है। उसे घोर आत्मग्लानि ने घेर लिया। साथ ही उसने जाना कि उसकी पतिव्रता पत्नी एकाकी रहकर आज भी उसकी प्रतीक्षा कर रही है। परन्तु वह सुभद्रा से मिलने का साहस नहीं जुटा पाया। उसने सुभद्रा को पत्र लिखकर अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और लिखा कि जहां उसने उसकी सोलह वर्ष तक कठिन प्रतीक्षा की है वहीं कुछ समय और प्रतीक्षा करे। वह शीघ्र ही धन कमाकर उसके पास लौटेगा। ... जैन चरित्र कोश ..
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