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दो-दो पत्नियों के साथ रहकर अमरकुमार ने सुदीर्घ काल तक सुशासन किया और अंतिमवय में सुरसुंदरी के साथ प्रव्रजित बनकर उत्तम गति का अधिकार प्राप्त किया।
-सुरसुंदरी चरित्र (ख) सुरसुंदरी
सुरसुंदरी चम्पापुरी के सेठ धनदत्त के चार पुत्रों की चार पत्नियों में सबसे छोटी थी। आयु में छोटी होकर भी विवेक, विचार और बद्धि में वह सबसे ऊपर थी। एक बार सेठ धनदत्त को स्वप्न में कलदेवी के दर्शन हुए। कुलदेवी ने उसे बताया कि उसके और उसके पुत्रों के पुण्य चुक गए हैं, आने वाले बारह वर्ष उसके और उसके पुत्रों के लिए कष्ट भरे हैं।
धनदत्त चम्पापुरी का सबसे धनी श्रेष्ठी था और उसे राजदरबार में नगर-सेठ का पद प्राप्त था। पर जब दैव ने पलटा खाया तो न धन रहा और न पद ही रहा । राजकर्मचारियों ने उसकी सभी दकानों का माल जब्त कर लिया। उसके गोदामों में आग लग गई। जहाज समुद्र में डूब गए। सेठ को कुलदेवी से अग्रिम सूचना मिल ही चुकी थी, सो एक ही दिन में घटी इन घटनाओं पर उसे आश्चर्य नहीं हुआ। उसने अपनी पत्नी, पुत्रों और पुत्रवधुओं को पूरी स्थिति कही और राय दी कि हमें चम्पापुरी को छोड़कर किसी अन्य स्थान पर रहकर ये कष्ट से भरे बारह वर्ष व्यतीत करने चाहिएं। परिवार के सभी सदस्यों ने सेठ की बात का अनुमोदन किया। आधी रात में यह परिवार घर में शेष सम्पत्ति को अपने साथ लेकर अज्ञात दिशा में प्रस्थित हो गया। पर दुर्दैव उनके साथ था। साथ लाए गए धन को चोरों ने चुरा लिया। मेहनत मजदूरी करके उदरपोषण करते हुए ये सभी सदस्य कंचनपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर सुरसुंदरी ने अपने श्वसुर के हाथ पर सवा करोड़ मूल्य का एक रत्न रखा और कहा, पिता जी ! ऐसे तीन और रत्न मैं अपने साथ ले आई हूँ। इस एक रत्न को बेचकर ही हम बारह वर्ष सूखपूर्वक बिता सकते हैं। आप इस रत्न को बाजार में बेच आइए।
सेठ अपनी पत्नी के साथ रत्न बेचने गया। दुर्दैव उसके पीछे-पीछे चल रहा था। दुकानदार ने सेठ का रत्न छिपा लिया और उसे धक्के देकर दुकान से निकाल दिया। सेठ-सेठानी-सास-श्वसुर के न लौटने पर सुरसुंदरी ने अपने पति और तीनों ज्येष्ठों को दूसरा रत्न देकर बाजार भेजा। उसी दुकान पर वे चारों भाई पहुंचे और दुकानदार द्वारा ठग लिए गए। सुरसुंदरी और उसकी जेठानियां संध्या तक अपने पतियों के लौटने की प्रतीक्षा करती रहीं। पर न तो वे लौटे और न ही उन्हें लौटना था।
आखिर सुरसुंदरी के निर्देश पर उन चारों महिलाओं ने पुरुष वेश धारण किया और रत्न बेचने के लिए उसी दुकान पर वे पहुंची। दुकानदार ने उन्हें भी ठगने के लिए उनसे रत्न मांगा। इस पर सुरसुंदरी ने उसे डपटते हुए कहा कि क्या उसे दूर से दिखाई नहीं पड़ रहा है। दुकानदार समझ गया कि यहां उसकी ठगी नहीं चलने वाली है। सो उसने साढ़े बासठ लाख रुपए में रत्न को गिरवी रख लिया। पुरुषवेशी चारों महिलाओं ने नगर में एक भव्य भवन खरीद लिया और सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगीं।
सुरसुंदरी ने अपना नाम सुरसुन्दर रख लिया। उसने एक रत्न राजा को भेंट किया और दरबार में सम्मानित पद प्राप्त किया। पुरुषवेश में रहते हुए अपने मधु-मिष्ठ और सुशिष्ट स्वभाव से सुरसुन्दर ने राजा और अन्य दरबारियों को अपना बना लिया। राजा उसके कुशल व्यवहार और धर्म निष्ठा से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी इकलौती पुत्री रत्नसुंदरी का विवाह सुरसुन्दर से कर दिया। विवाह तो राजा का दबाव मानकर सुरसुन्दर ने कर लिया पर वह इस समस्या से घिर गई कि रत्नसुंदरी को कैसे समझाए कि वह भी एक नारी ही है। आखिर अपने बुद्धिकौशल और वाग्चातुर्य से वह रत्नसुंदरी को एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन ...जैन चरित्र कोश ...
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