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सुकुमालिका
चम्पानगरी के राजा की रानी। (देखिए-जितशत्रु) सुकृष्णा
महाराज श्रेणिक की रानी और सुकृष्ण कुमार की माता। उसने प्रवजित होकर सप्त-सप्तमिका, अष्ट-अष्टमिका, नव-नवमिका और दश-दशमिका नामक भिक्षु प्रतिमाओं की आराधना की। शेष परिचय काली के समान है। (देखिए-काली)
-अन्तगडसूत्र वर्ग 8, अध्ययन 5 सुकौशल
कुशस्थल के पराक्रमी नरेश और महासती कौशल्या के जनक। सुकौशल मुनि
अयोध्या नरेश महाराज कीर्तिधर के पुत्र। उनकी माता का नाम सहदेवी था। कीर्तिधर द्वारा दीक्षा धारण कर लेने के पश्चात् वे अयोध्या के सिंहासन पर बैठे और कई वर्षों तक न्याय और नीति पूर्वक शासन करते रहे। आखिर एक घटना ने उन्हें संसार से विमुख बना दिया और उन्होंने दीक्षा धारण कर ली। वह घटना इस प्रकार थी
एक बार मुनि कीर्तिधर विचरण करते हुए अपने ही नगर अयोध्या में आए। जब भिक्षा के लिए वे राजमार्ग से जा रहे थे, तो उनकी पत्नी सहदेवी ने उन्हें देख लिया। सहदेवी आशंकित बन गई कि कहीं उसका पुत्र भी अपने पिता को देखकर उनके पदचिन्हों पर न चल पड़े। इस आशंका से त्रस्त बनकर उसने कोतवाल से कहकर अपने पति मुनि कीर्तिधर को नगर से बाहर निकलवा दिया। आखिर राजा से यह घटना कैसे छिपी रहती ? धायमाता ने राजा सुकौशल को पूरी बात बता दी। अपनी ही नगरी में अपने पिता मुनि का यह अपमान सुकौशल सह न सका। इस घटना के पीछे “उनकी अपनी ही जननी का हाथ है", इस बात ने तो उसे और भी विचलित बना दिया। वह दौड़कर नगर के बाहर गया और पिता मुनि को कोतवाल से छुड़ाया। संसार के स्वरूप को साक्षात् देखकर सुकौशल भी राजपाट त्याग कर मुनि बन गया। इससे सहदेवी का धैर्य डावांडोल बन गया। पुत्र विरह के आर्तध्यान में डूबी हुई मरकर वह जंगल में सिंहनी बनी। उधर एक बार कीर्तिधर मुनि और सुकौशल मुनि उस जंगल से जा रहे थे। सिंहनी ने मुनि सुकौशल पर आक्रमण कर दिया। मुनि सुकौशल ने समता भाव से इस उपसर्ग को सहन किया। समता की पराकाष्ठा के परिणामस्वरूप अन्तिम सांस के साथ केवली बनकर वे सिद्ध हुए। अपने ही प्राण-प्यारे पुत्र का मांस खाते हुए सिंहनी को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। सत्य को जान / देखकर सिंहनी की देह में रही हुई सहदेवी कांप उठी। उसे अपने आप पर बहुत घृणा हुई। चिन्तन जागा-जिस पत्र के मोह में उसने प्राण दे दिए आज वह उसी पत्र के प्राणों की प्यासी बनी हई है। ऐसे पश्चात्ताप में डबी हई उस सिंहनी ने आमरण अनशन कर लिया। विशद्ध चित्त के साथ देह त्याग कर वह आठवें देवलोक में गई। मनष्य भव में उसने जिस बात को बिगाड़ा था उसी बात को एक हिंस्र जन्तु की देह में रहते हुए सुधार लिया।
कीर्तिधर मुनि इस पूरे घटनाक्रम को देख रहे थे। समता में स्थिर रहते हुए उन्होंने केवल ज्ञान अर्जितकर सिद्ध गति प्राप्त की।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व 7 (क) सुगन्धा
___ कनकपुर नगर के धनी सेठ जिनदत्त की पुत्री। सुगंधा के शरीर से जन्म से ही सुगन्ध निकलती थी। ... जैन चरित्र कोश ..