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दिया। अनेक दिनों तक अनेक ग्रामों-नगरों में भटकते हुए राजा सुन्दर ने दुष्कर्मों को निर्जीण कर डाला। एक बार वह श्रीपुर नगर में पहुंचा। वहां का राजा निःसंतान अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया था। पुण्योदय से नवीन राजा के चयन के लिए छोड़ी गई हथिनी ने राजा सुन्दर के गले में पुष्पमाला डालकर राजा के रूप में उसका चयन कर लिया । राजा सुन्दर श्रीपुर नगर के राजसिंहासन पर बैठा और कुशलता से राज्य-संचालन करने लगा।
उधर राजा के दोनों पुत्र भी भटकते हुए श्रीपुर पहुंचे। कोतवाल ने उनकी योग्यता को परखकर उन्हें पहरेदार के रूप में नियुक्त कर दिया। दोनों भाई अपने माता और पिता से पुनर्मिलन की आशा में श्रीपुर में रहकर समय व्यतीत करने लगे। ____एक बार सोमदेव बनजारा श्रीपुर नगर में आया। उसने कोतवाल से अपने लिए पहरेदारों की याचना की। संयोग से दोनों राजकुमारों को कोतवाल ने बनजारे को पहरेदार के रूप में प्रदान कर दिया। एक रात्रि में दोनों भाई बनजारे के शिविर के बाहर पहरा देते हुए आप बीती पर चर्चा कर रहे थे। बनजारे की दासी बनी मदनवल्लभा ने राजकुमारों की आप-बीती सुनी तो उसे समझते देर न लगी कि वे दोनों उसके ही पुत्र हैं। वह शिविर से बाहर आकर अपने पुत्रों से लिपट गई। माता और पुत्रों का यह मिलन बनजारे को फूटी
आंख न सहाया। उसने कपोल-कल्पित शिकायत राजा से की। सन्दर राजा ने दोनों पहरेदारों और बनजारे की दासी को दरबार में बुलाया। सभी ने परस्पर एक-दूसरे को पहचान लिया और इस प्रकार इस राजपरिवार पर आया संकट सदा के लिए समाप्त हो गया। बणजारे को राजा ने अपने देश से निष्कासित कर दिया।
शनैः-शनैः सुन्दर राजा की कीर्ति-सुगन्ध धारापुर तक भी पहुंच गई। वहां का मंत्री गण्यमान्य नागरिकों के साथ राजा सुन्दर की सेवा में पहुंचा और राज्य ग्रहण की उससे प्रार्थना की। राजा सुन्दर ने श्रीपुर और धारापुर का शासन एक साथ वहन किया और आदर्श रामराज्य की स्थापना कर प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। अंतिम-वय में पुत्रों को राजपद देकर सुन्दर राजा और मदनवल्लभा रानी ने संयम पथ पर कदम बढ़ाए और सद्गति का अधिकार प्राप्त किया।
-पार्श्वनाथ चरित्र सुन्दर सेठ
पाटणपुर नगर का एक धनी सेठ। (देखिए-जयसुन्दरी) (क) सुन्दरी
___ सोलह महासतियों में द्वितीया। भगवान ऋषभदेव की सुनंदा रानी से उत्पन्न पुत्री। बाहुबली सुन्दरी के सहोदर थे। उसने अपने पिता ऋषभदेव से गणित कला सीखकर जगत में उसका प्रचार और प्रसार किया। भगवान को जब केवलज्ञान हुआ तो ब्राह्मी के साथ ही सुंदरी भी प्रव्रजित होने को तैयार हुई। पर भरत ने सुन्दरी को एतदर्थ अनुज्ञा प्रदान नहीं की। वह उसे षडखण्ड विजय के पश्चात् स्त्रीरत्न बनाना चाहता था। पर सुन्दरी तो भोगों से विमुख थी। भरत के षडखण्ड विजय अभियान प्रारंभ करते ही सुन्दरी ने घर में रहकर ही उग्र तपश्चर्या शुरू कर दी। उसने कठोर तप से अपनी देह का रक्त और मांस सुखा डाला। भरत को दिग्विजय में साठ हजार वर्ष लगे। जब वह अयोध्या लौटा तो कृशगात्रा सुन्दरी को देखा । बात का भेद जानकर वह खिन्न बन गया। उसने अपने मिथ्याग्रह के लिए सुन्दरी से क्षमायाचना की और उसे प्रव्रजित होने की आज्ञा प्रदान कर दी। सुन्दरी ने संयम लेकर केवलज्ञान साधा और अन्त में मोक्ष प्राप्त किया।
-आवश्यक नियुक्ति गाथा 196-349 / त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व । .. जैन चरित्र कोश ...