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आचार्य श्री ने उच्च घोष पूर्वक हाथ ऊपर उठाकर उसे आशीर्वाद दिया। विक्रमादित्य बोला-मेरे द्वारा नमन किए बिना ही आप मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं? इस पर आचार्य श्री ने कहा, आप द्वारा किए गए मानसिक प्रणाम के बदले में मैं आशीर्वाद दे रहा हूँ।
__आचार्य सिद्धसेन की सूक्ष्म ज्ञानशक्ति से विक्रमादित्य बहुत प्रभावित हुआ। उसने प्रचुर धन सिद्धसेन को भेंट किया, जिसे आचार्य श्री ने अस्वीकार कर दिया। धन के प्रति आचार्य श्री की अनासक्ति ने विक्रमादित्य को और अधिक प्रभावित किया। उन्होंने वह समस्त धन जैन धर्म की प्रभावना में व्यय कर दिया। वे आचार्य सिद्धसेन का विशेष मान करने लगे।
एक बार आचार्य सिद्धसेन चित्रकूट पधारे। वहां एक स्तम्भ में ग्रन्थों का विशाल भण्डार था, जिनमें से विशेष प्रयास करने पर आचार्य सिद्धसेन को एक ग्रन्थ का एक ही पृष्ठ प्राप्त हो पाया। स्तम्भ रक्षक देव ने अन्य सामग्री आचार्य श्री को नहीं लेने दी। उस एक पृष्ठ के अध्ययन से सिद्धसेन को सर्षप विद्या और स्वर्णसिद्धि विद्या-ये दो विद्याएं प्राप्त हुईं। प्रथम विद्या के प्रयोग से वे विशाल सशस्त्र सेना को तैयार कर सकते थे और द्वितीय विद्या से इच्छित स्वर्ण प्राप्त कर सकते थे।
विचरण करते हुए आचार्य सिद्धसेन कुर्मारपुर नगर में पधारे। वहां के राजा देवपाल पर आचार्य श्री का बहत प्रभाव पड़ा। देवपाल उनका अनन्य भक्त बन गया। उसने आचार्य श्री को दरबार में उच्चासन प्रदान किया। कहते हैं कि राजसम्मान पाकर आचार्य श्री सुविधाभोगी बन गए और साधु मर्यादाओं से पतित हो गए। एक बार किसी शत्रु राजा ने देवपाल पर आक्रमण किया। देवपाल शत्रु राजा के समक्ष असहाय था। उसने आचार्य श्री से आत्मरक्षा की प्रार्थना की। आचार्य श्री ने सर्षप विद्या से विशाल सेना निर्मित कर शत्रु राजा को भगा दिया और स्वर्णसिद्धि विद्या से अपार स्वर्ण निर्मित कर राजकोष को भर दिया। आचार्य श्री के इस चमत्कार पर देवपाल गद्गद बन गया। उसने आचार्य श्री की प्रशस्ति करते हुए कहा, भगवन् ! शत्रु राजा द्वारा उपस्थित भय रूपी अंधकार से मैं घिर गया था। आपने सूर्य के समान प्रगट होकर मेरे अंधकार का हरण कर लिया। आप वास्तव में दिवाकर तुल्य हो। तब से आचार्य सिद्धसेन उपनाम 'दिवाकर' से ख्यात हुए।
आचार्य वृद्धवादी को ज्ञात हुआ कि सिद्धसेन सुविधा भोगी बनकर श्रमण मर्यादाओं का उल्लंघन कर रहे हैं। वे गुप्त रूप से कुर्मारपुर पहुंचे और सिद्धसेन को प्रतिबोध देकर साध्वाचार के प्रति जागरूक बनाया। आलोचना-प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि करके आचार्य सिद्धसेन पुनः श्रमण मर्यादाओं में स्थिर हो गए। ___आचार्य सिद्धसेन संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वान थे। उस युग में संस्कृत भाषा को विशेष गौरव प्राप्त हो रहा था। एक बार संघ के समक्ष आचार्य श्री ने प्रस्ताव रखा-आगमों को संस्कृत भाषा में अनुदित किया जाना चाहिए। आचार्य श्री के इस प्रस्ताव की संघ में तीव्र आलोचना हुई। श्रमणों ने कहा, क्या तीर्थंकर और गणधर संस्कृत भाषा नहीं जानते थे?
आचार्य सिद्धसेन के प्रति विरोध के स्वर इतने तीव्र हुए कि संघ ने उन्हें बारह वर्षों के लिए संघ और साधु वेश से बहिष्कृत कर दिया। साथ ही कहा, इस अवधि में यदि जैन धर्म की प्रभावना का विशेष कार्य उन द्वारा होता है तो उन्हें उक्त अवधि से पूर्व भी संघ में लिया जा सकता है।
सिद्धसेन सात वर्षों तक विहरण करते रहे। पुनः एक बार अवन्ती नगरी में आए और शिव मंदिर में ठहरे। उन्होंने शिवलिंग को प्रणाम नहीं किया। पुजारी ने उनको पुनः-पुनः शिवलिंग को प्रणाम करने के लिए कहा पर सिद्धसेन ने प्रणाम नहीं किया। पुजारी ने बात राजा तक पहुंचाई। राजा विक्रमादित्य स्वयं वहां ... जैन चरित्र कोश ..
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