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रूप के अहं रूपी सर्प से दंशित सनत्कुमार विशेष साज-सज्जा से राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। ब्राह्मण वेशी देव दरबार में आए। राजा ने गर्व से उनकी ओर देखा । पर ब्राह्मणों ने गर्दन हिला दी। बोले, अब वह बात नहीं रही, आपके शरीर की कान्ति विलुप्त हो चुकी है। आप जरा थूक कर तो देखिए !
सनत्कुमार ने थूका तो थूक में असंख्य कृमी कुलबुला रहे थे। एक झटका लगा उन्हें । रूप की अस्थिरता और नश्वरता ने उनमें वैराग्य जगा दिया और उसी क्षण षडखण्ड के ऐश्वर्य को ठुकराकर वे चक्रवर्ती सम्राट् मुनि बन गए ।
सात सौ वर्षों तक सनत्कुमार मुनि का शरीर सोलह महारोगों का केन्द्र बना रहा, पर मुनि की समता इतनी विलक्षण थी कि रोगोपचार का विचार तक उनके मन में नहीं उठा। एक बार इन्द्र ने वैद्य का रूप धर कर राजर्षि से उपचार की प्रार्थना की। मुनि ने कहा कि यदि कर्मों का उपचार हो सके तो ठीक वरन देह रोग तो वे स्वयं शान्त करने में समर्थ हैं । कहकर मुनि ने अपनी अंगुली पर अपना थूक लगाया। कुष्ठ से गलित अंगुली स्वर्ण की तरह चमक उठी । देव दंग रह गया। सात सौ वर्षों की उग्र साधना से सर्व कर्म खपा सनत्कुमार ने निर्वाण प्राप्त किया । - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र
सन्म
महावीर का बचपन का एक नाम। सन्मति का अर्थ है सम्यक् और श्रेष्ठ मति - बुद्धि सम्पन्न | महावीर के इस नाम के प्रचलन के पीछे उनके जीवन की एक घटना है - महावीर जब पांच वर्ष के थे तो एक दिन अपने महल की छत पर बैठकर ध्यान मुद्रा में लीन हो गए। उसी समय संजय और विजय नामक दो जंघाचारण लब्धि सम्पन्न मुनि आकाश मार्ग से जा रहे थे। उन्होंने एक तेजस्वी बालक को ध्यानमुद्रा में लीन देखा तो वे आकर्षित होकर राजमहल की छत पर उतर आए। ध्यानस्थ तेजस्वी बालक को मुनिद्वय एकटक दृष्टि से देखने लगे। वर्धमान ने ध्यान पूरा किया और उपस्थित मुनिराजों का अभिनन्दन किया। मुनियों ने अपने ज्ञानबल से जान लिया कि यह बालक महान योगी बनकर जगत का कल्याण करेगा। मुनियों के मन में कुछ संदेह थे जिनका निराकरण वर्धमान ने सहज ही कर दिया। एक पंचवर्षीय बालक के मुख से गूढ़ प्रश्नों के सहज समाधान सुनकर मुनियों के मुख से निकला - सन्मति ! सन्मति ! उसी समय माता तृषला वहां आ गई। उसने मुनियों को वन्दन किया। मुनियों ने कहा, श्राविके ! तुम्हारा पुत्र अद्भुत बुद्धि सम्पन्न बालक है। इसका नाम तो सन्मति होना चाहिए। तब से वर्धमान को " सन्मति" नाम से भी पुकारा जाने लगा । सप्तर्षि
प्रभापुर के राजा श्रीनन्द और धारिणी के सात पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार थे - 1. सुरनन्द, 2. श्रीनन्द, 3. श्री तिलक, 4. सर्वसुन्दर, 5. जयंत, 6. चामर और 7. जयमित्र । कालान्तर में धारिणी ने आठवें पुत्र को जन्म दिया। जब वह नवजात पुत्र एक मास का हुआ तो राजा श्रीनन्द ने उसका राज्याभिषेक कर दिया और अपने शेष सातों पुत्रों के साथ वह प्रव्रजित हो गया । तपःसाधना द्वारा कर्मराशि को निःशेष करके मुनि श्रीनन्द मोक्ष में गए।
सुरनन्द आदि सातों सहोदर मुनि उग्र तपश्चरण से आत्म आराधना करने लगे । तपःप्रभाव से उन्हें चारण लब्धि प्राप्त हो गई। इतना ही नहीं, बल्कि वे जहां भी विहार करते वहां की जनता रोगमुक्त बन जाती थी । सातों मुनि साथ-साथ विचरते और साथ-साथ तप करते। इससे वे जगत में 'सप्तर्षि' नाम से विख्यात हो गए । - देखिए जैन रामायण • जैन चरित्र कोश •••
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