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अणहिल्लपुर पाटण में रहकर शोभन मुनि ने आगमों का पारायण किया। क्रमशः उपाध्याय और आचार्य पद पर उनकी नियुक्ति हुई। उनका विमल सुयश चतुर्दिक में व्याप्त हो गया। एक बार शोभनाचार्य ने गुरु से आज्ञा मांगी कि वह अपने अग्रज को प्रतिबोधित कर मालव भूमि में श्रमणों के विचरण को प्रशस्त करना चाहते हैं। शिष्य की योग्यता को पहचानकर गुरु ने उन्हें आज्ञा प्रदान कर दी। - शोभनाचार्य अपनी शिष्य मण्डली के साथ अवन्ती गए। धारा नगरी में पहुंचकर उन्होंने धनपाल को प्रतिबोधित किया। शोभनाचार्य के लघुशिष्यों ने दही में जीवों की विद्यमानता को साक्षात् दिखाकर धनपाल को जैनदर्शन के सूक्ष्म ज्ञान का परिचय दिया। धनपाल प्रबुद्ध बन गया। उसका मिथ्या अहं गल गया। अनुज शोभनाचार्य से वह गले मिला और राजा से प्रार्थना कर उसने श्रमणों के मालवा में विहार को प्रशस्त कराया। धनपाल दृढ़धर्मी जैन श्रावक बन गया। जिनशासन के पक्ष को समर्थन करने वाली 'तिलकमंजरी' नामक एक काव्यकृति का प्रणयन धनपाल ने किया। यह ग्रन्थ राजा भोज को भी बहुत पसन्द आया। काव्य के पात्रों के परिवर्तन के लिए राजा भोज ने धनपाल को बाध्य किया, पर धनपाल उसके लिए तैयार नहीं हुआ। रुष्ट होकर भोज ने उस ग्रन्थ को अग्निकुण्ड में डालकर जला डाला। इससे धनपाल मर्माहत हो उठा। उसकी वर्षों की काव्यसाधना क्षणों में ही नष्ट हो गई थी। परन्तु धनपाल की नव वर्षीय पुत्री साक्षात् सरस्वती रूप बनकर प्रगट हुई थी। 'तिलकमंजरी' की प्रति जब धनपाल तैयार कर रहा था, उसी समय उस बालिका ने काव्य पाठ को सुनने मात्र से उसे कण्ठस्थ कर लिया था। उस नन्ही बालिका की स्मरण शक्ति के आधार पर ही 27000 श्लोक परिमाण वाली उस अमर रचना के 24000 श्लोकों को पुनः लिखा गया। _____ अग्रज धनपाल को जिनोपासक बनाकर शोभनाचार्य ने जिनशासन की महती प्रभावना की। अन्तिम अवस्था में समाधि पूर्वक धनपाल ने देह त्याग किया।
बहुत वर्षों तक जिनशासन की आराधना कर शोभनाचार्य स्वर्गवासी हुए। शौरिकदत्त
प्राचीनकालीन भारतवर्ष में शौरिकपुर नाम का एक नगर था। नगर के बाहर शौरिकावतंसक नाम का एक उद्यान था। उद्यान में शौरिक यक्ष का एक प्राचीन स्थान था।
एक बार भगवान महावीर शौरिकनगर में पधारे। आर्य इन्द्रभूति गौतम भिक्षा के लिए नगर में गए। जब वे भिक्षा लेकर लौट रहे थे तो उन्होंने पीड़ा से कराहते हुए, अस्थिपंजर शेष और अत्यन्त घृणित पुरुष को देखा जो थोड़ी-थोड़ी देर में रुधिर, पीव और कृमि-कवलों का वमन कर रहा था। उस पुरुष की दशा को देखकर गौतम स्वामी कर्मों के विपाक पर चिन्तन करते हुए भगवान के समीप पहुंचे। आहारादि से निवृत्ति के पश्चात् गौतम स्वामी भगवान के सान्निध्य में पहुंचे। भगवान को वन्दन करके उन्होंने उस देखे हुए पुरुष के अतीत और अनागत के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने फरमाया___ गौतमः बहुत पहले की बात है। नन्दिपुर नाम का एक नगर था। वहां के राजा का नाम मित्र था। राजा का एक रसोइया था जिसका नाम श्रीयक था। श्रीयक महाधर्मी और दुष्प्रत्यानन्द था। वह नित्य मदिरा और मांस का भोजन राजा को परोसता था और स्वयं भी मांस-मदिरा का आहार करता था। उसकी मांस-प्रियता इतनी प्रगाढ़ थी कि उसके लिए वह हजारों पशु-पक्षियों का प्रतिदिन वध करवाता था। इसके लिए उसने अनेक कर्मचारी नियुक्त किए हुए थे। विभिन्न पशु-पक्षियों के मांसों को वह विभिन्न विधियों से तलता और भूनता था। अपने उस व्यवसाय में वह इतना पारंगत और रुचिशील था कि उसने उसके परिणामस्वरूप - जैन चरित्र कोश ...
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