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शंकर सेठ
अनूपगढ़ नगर का एक चन्दन व्यापारी। (देखिए-रूपकला) (क) शंख
हस्तिनापुर नरेश श्रीसेन का पुत्र, एक रूप-गुण सम्पन्न राजकुमार। युवावस्था में शंख बलवान और अनेक कलाओं में निष्णात बना। यौवन वय में उसने दुर्दान्त पल्लीपति का दमन कर प्रजा को भयमुक्त बनाया। बाद में एक दुष्ट विद्याधर के चंगुल से अंगदेश की राजकुमारी यशोमती को मुक्त कराया। पूर्व जन्मों के अनुराग के कारण शंखकुमार और यशोमती का पाणिग्रहण हुआ।
कालक्रम से शंख हस्तिनापुर के राजा बने। उन्होंने कई वर्षों तक न्यायपूर्वक प्रजा का पालन किया। आयु के उत्तरार्ध में राजपाट का परित्याग करके शंख ने प्रव्रज्या धारण की। यशोमती ने भी पति का अनुगमन किया। शंख मुनि ने उत्कृष्ट तपाराधना तथा 20 बोलों की आराधना द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म का संचय किया। आयुष्य पूर्ण कर शंख मुनि अपराजित स्वर्ग में उत्पन्न हुए। यशोमती ने भी उत्कृष्ट तपाराधना की और वह भी अपराजित देवलोक में उत्पन्न हुई।
अपराजित देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर शंख का जीव शोरिपुर नरेश महाराज समुद्रविजय की रानी शिवा देवी की कुक्षी से पुत्र रूप में जन्मा जहां उसका नाम अरिष्टनेमि रखा गया। यही अरिष्टनेमि जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर बने।
यशोमती का जीव उग्रसेन की पुत्री के रूप में जन्मा जहां उसका नाम राजिमती रखा गया। (ख) शंख
विजयवर्धन नामक नगर के नगरसेठ का पुत्र, एक बुद्धिमान और करुणाशील युवक। उसने अपने जीवन काल में अनेक प्राणियों की रक्षा की और अभयदान का आदर्श स्थापित किया। आयुष्य पूर्ण कर वह भवनपति देव हुआ। देवायु पूर्ण करके वह विजयपुर नरेश विजयसिंह का पुत्र 'जय' हुआ। पिता के बाद जय राजा बना। एक बार एक चित्र देखकर उसे अवधिज्ञान हो गया। अवधिज्ञान से उसने जाना कि जीवदया और अभयदान के कारण ही वह पहले देव बना और फिर राजा बना। जय अभय की समग्र साधना को साधने के लिए मुनि बन गया और केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गया। -कथारत्न कोष, भाग-1 (ग) शंख
श्रावस्ती नगरी का रहने वाला एक धनी और धर्मज्ञ श्रमणोपासक। भगवान महावीर का वह अनन्य उपासक था। श्रावस्ती नगरी का श्रीसंघ सुविशाल था। उनमें से पोखली नामक श्रमणोपासक शंख का अन्तरंग मित्र था। एक बार जब भगवान महावीर श्रावस्ती नगरी पधारे तो शंख और पोखली आदि अनेक ... 574 ...
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