________________
अनंतमती ने अपने शील पर आंच नहीं आने दी। अनंतमती को अपने अनुकूल बनाने के लाख यत्न करके भी वेश्या उसे अपने आचरण में नहीं ढाल सकी। हार मानकर वेश्या ने अयोध्या के राजा को अनंतमती भेंट कर दी। पंक्तिबद्ध बनकर कर्म अनंतमती के साहस और संकल्प को निरंतर चुनौती दे रहे थे। पर अनंतमती ऐसी सबला बाला थी कि वह प्रत्येक चुनौती को मुंहतोड़ उत्तर दे रही थी। अयोध्या-नरेश की रानी ने अनंतमती की सहायता की और उसे एक कुशल दासी द्वारा जंगल में पहुंचा दिया। ____ जंगल में अनंतमती को एक श्रमणी के दर्शनों का पुण्य लाभ प्राप्त हुआ। साध्वी के दर्शन से अनंतमती को विश्वास हो गया कि अब उसके अशभ कर्म अशेष बन गए हैं। वह साध्वी जी के साथ रहने लगी। संयोग से प्रियदत्त अपनी पुत्री को खोजते-खोजते उधर से गुजरा। पुत्री को देखकर उसे बड़ा हर्ष हुआ। पिता-पुत्री का मिलन हुआ। अनंतमती ने पूरी कथा पिता को बताई और अपना संकल्प सुना दिया कि अब वह संयम धारण कर शेष जीवन साधना को समर्पित करेगी। पिता ने पुत्री को समझाया कि वह अपने घर चले, वहीं पर उसका दीक्षा समारोह आयोजित किया जाएगा। वैसा ही हुआ। प्रियदत्त की प्रार्थना पर साध्वी जी भी चम्पापुरी पधारी। महान उत्सव के साथ अनंतमती ने दीक्षा धारण की। उच्च संयम की आराधना करते हुए देहोत्सर्ग करके अनंतमती स्वर्ग में गई। स्वर्ग से च्यव कर मानवदेह प्राप्त कर वह सिद्धि प्राप्त करेगी। अनंतवीर्य स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
अष्टम विहरमान तीर्थंकर । धातकीखण्ड के पश्चिम महाविदेह की नलिनावती विजय में स्थित वीतशोका नगरी के राजा मेघराज की रानी मंगलावती के पुण्य गर्भ से प्रभु ने जन्म लिया। यौवन में विजयादेवी से विवाह किया और तिरासी लाख पूर्व की अवस्था में मुनिव्रत स्वीकार कर केवलज्ञान प्राप्त किया तथा तीर्थ की स्थापना की। चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोग कर प्रभु निर्वाण पधारेंगे। अनन्त सेन देवकी पुत्र । (देखिए-अनियसेन)
-अन्तगड, तृतीय वर्ग, द्वितीय अ. अनरण्य
अयोध्या के एक सूर्यवंशी नरेश। उनके पुत्र का नाम दशरथ था, जो श्री राम के पिता थे। अनरण्य ने लम्बे समय तक राज्य किया। अन्तिम वय में अपने पुत्र दशरथ को राजपद पर अधिष्ठित कर उन्होंने प्रव्रज्या अंगीकार की और आत्मकल्याण किया।
-जैन रामायण अनाथी मुनि
__ अनाथी मुनि का मातृ-पितृ-प्रदत्त नाम गुणसुन्दर था। कौशाम्बी के धनपति धनसंचय नामक श्रेष्ठी उनके पिता थे। कई सुन्दर कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ था। उनके जीवन में सब सुख थे। एक बार उन्हें अक्षवेदना हो गई। उनके पिता ने बड़े-बड़े वैद्य बुलाए। धन को पानी की तरह बहाया, पर वेदना शान्त होने के बजाय दोगने वेग से बढ़ती चली गई। गणसन्दर आठों प्रहर पीडा से तिलमिलाता रहता। उसे न भूख लगती और न नींद आती। कई दिन बीत गए। अभिभावकों द्वारा किए गए समस्त उपाय निरुपाय सिद्ध हुए। गुणसुन्दर को अनुभव हो गया कि वह अनाथ है। माता-पिता-पत्नी और धन निःसार हैं। ये किसी के नाथ नहीं हैं। धर्म ही मनुष्य का नाथ है। उसने संकल्प किया-यदि मेरी वेदना शान्त हो जाए तो मैं मुनि बन जाऊंगा। ... जैन चरित्र कोश ...